वह पढ़–लिखकर भी बेरोजगार था। निरन्तर सात वर्षों तक नौकरी के लिए उसने खूब मेहनत की। पता नहीं उसकी मेहनत में कहाँ चूक होती गई, उसे नौकरी नहीं मिल पाई। थक–हार कर उसने छोटा–मोटा व्यवसाय करने को सोचा। थोड़ी बहुत पूँजी कहाँ से आती? वह सड़क पर जगह तलाशने लगा जहाँ पर कोई छोटी सी दुकान खोल ले। गाँधी चौक पहुँचा, वहाँ थोड़ी–भीड़–भाड़ रहती है। गाँधी चौक के ठीक बीचो–बीच गाँधी की प्रतिमा बनी हुई थी। नीचे का चबूतरा खाली था। उसने पहले वहाँ एक आवारा कुत्ते को देखा, उसे वहाँ से भगाया, वहाँ की धूल साफ की झाड़ू लगाया, गंदगी साफ की। प्रतिमा के पास रखी पेशाब से भरी बोतलों को भी फेका। गाँधी प्रतिमा के ठीक सामने ही एक शराब दुकान थी। बगल में एक मांसाहारी होटल भी। बेरोजगार युवक ने खूब गणित लगाया। किस धंधे में घाटा नहीं होगा। दूसरे दिन उसने एक चलताऊ ठेला किराए से लिया एवं गाँधी प्रतिमा के चबूतरे पर बैठकर पान, बीड़ी–सिगरेट बेचने लगा। धंधा चल निकला। कुछ दिन बाद उसने अपनी दुकान का नाम बापू पान भंडार रख दिया।
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