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लघुकथाएँ - देश -सुनील गंगोपाध्याय
देवदूत डर कर भाग गया

देवदूत ने आकर कहा, ‘चलो।’
मैंने चौंककर कहा, इतनी जल्दी....अचानक....?’
देवदूत ने उपेक्षा से वेदना–मिश्रित हास्य में कहा, ‘सब वही कहते हें। सोचते हैं जैसे मैं नियत समय से पहले आ गया हूँ।’
‘क्या थोड़ी–सी तैयारी का भी समय नहीं मिल सकता?’
‘तैयारी करने की आवश्यकता नहीं। साथ तो कुछ भी लेकर नहीं जाना है।’
आत्म सम्मान में सिर उठाकर खड़े होते हुए मैंने कहा, ‘ठीक है....तो फिर चलो।’
‘अपने शरीर को यही छोड़ दो। अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं।’
इस मायामय शरीर पर मातृ-स्नेह–सा हाथ फेरते हुए मैंने कहा, ‘ठीक है, मुझे इस शरीर से मुक्त कर दो।
नदी के टूटे घाट पर भीगी पोशाक की तरह परित्यक्त हुआ शरीर। मैं उसके साथ जल में उतर गया। कमल–पुष्प पर जैसे कीट–पतंगे विचरते हैं, उसी तरह हम शरीरविहीन होकर उड़ने लगे।
सामान्य कौतूहल में देवदूत ने पुन: मुझसे प्रश्न किया,‘कोई कामना या इच्छा तो नहीं रह गई? कोई अतृप्ति या सुप्तवासना अथवा निषिद्ध आकांक्षा? ख्याति के लिए कुछेक सीढ़ियों का अतिक्रमण ?’
उसकी ओर निर्निमेष देखते हुए मैंने कहा, ‘नारी के संदर्भ में मेरी अनंत अतृप्ति रह जाएगी और रूप के प्रति तृष्णा पर वह सब कुछ नहीं। जानता हूँ कि मैं अजर–अमर नहीं रहूँगा। सिर्फ़ एक अफसोस रह गया है, एक खेल के पूरा न होने का।’
‘कैसा खेल? पासे का?....यह कहकर तुम मुझे बरगला नहीं सकते। मृत्यु के साथ पासा खेलने के विख्यात उपाख्यान से मैं भलीभाँति परिचित हूँ।’
‘नहीं पासे का खेल नहीं, कोई और खेल है। मैंने पृथ्वी में एक बीज बोया था, उससे शिशु–पौधा निकला। उस पौधे पर एक फूल खिला, फल लगे और फल से पुन: बीज फिर उस बीज से वृक्ष। ऐसा ही चल रहा था। फिर एक दिन जब उस वृक्ष पर एक फूल खिला तो मैंने उसे आदेश दिया, ‘रुक जाओ।’ ‘फूल वहीं रुक गया। वह सुगंध बिखेरने लगा। उसकी पंखुडि़याँ फिर झड़कर नहीं गिरीं। चंद्र किरणें व धूप आकर उस पर अठखेलियाँ कर उससे अनुरोध करतीं, ‘हे फूल! तुम झड़ जाओ। झड़ जाना ही तुम्हारी नियति है।’ पर फूल पूर्ववत् अम्लान रहा।’
‘तो तुम क्या चाहते हो?’
‘यह कोई रूपक नहीं, एक घटना है या फिर मेरा स्वयं का खेल भी कह सकते हो। मुझे उस फूल को मुक्त करना उचित है।’
ठीक है....जाओ, तुम लौट जाओ।’
‘क्या तुम मेरी प्रतीक्षा करोगे, यहीं इसी नदी के तट पर? मैं सज्जन हूँ। तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं अवश्य लौट आऊँगा।’
नदी तट पर आ शीघ्रता के कमीज–पतलून पहनने की तरह शरीर को लपेट मैं दौड़ा–दौड़ा लौट गया। जाकर पौधे से फूल को तोड़ पंखुडि़याँ अपनी–अपनी राह चली गई। पौधे को जड़ से उखाड़ टुकड़े–टुकड़े कर मैंने उसकी हत्या की। तब भी फूल की फीकी गंध रह गई थी। उस सुगंध को मैंने अलविदा कहा। उसके बाद मैं पुन: उस नदी तट पर लौट आया, पर वहाँ देवदूत नहीं था। उसे तो प्रतीक्षा करनी चाहिए । मैंने कई बार उसका नाम लेकर पुकारा। कोई उत्तर नहीं मिला।
वह क्यों चला गया? क्या वह डर गया? किस चीज का डर? मैं भी अब कहाँ जाऊँ? मैं सब छोड़ आया हूँ। मेरी भी तो अब लौटने की कोई राह नहीं।
( अमर उजाला -शब्दिता से साभार)

 
 
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