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लघुकथाएँ - देश -विद्या लाल
आजकल

रंजन जी के साथ खुशबू पूरे चार बरस के बाद मायके आई थी। बच्चे को मां के हवाले कर आस–पड़ोस में सहेलियों के यहाँ चक्कर लगाती रहती। उसकी सहेलियों की पूरी पलटन तो शहर में मौजूद नहीं थी पर जो नहीं भी थीं, उनके घर से भी खुशबू के निमंत्रण आ रहे थे। छोटी बहनें अपनी दीदी की सहेली की आवभगत में कमी नहीं आने दे रही थी। एक दिन खुशबू अपनी सहेली कविता के घर खाने पर आमंत्रित थी।
‘‘तेरी बड़ी ननद अब कैसी है? बिचारी इतनी- सी उम्र में ही विधवा हो गई। और बच्चे कैसे है?’’ खाने के दौरान कविता की दादी ने पूछ लिया था। ‘‘दीदी की तो दो महीने बाद नौकरी लग गई थी और अब तो नवम्बर में उनके ही दफ्तर के सहयोगी नमण जी से उनकी शादी भी होने वाली है।’’बताते हुए खुशबू के पति रंजन जी के चेहरे पर संतोष छलक आया था।
‘‘ये क्या कह रहे हैं? शादी? हमारी जाति में विधवा–विवाह का तो रिवाज ही नहीं है? और उसके तो दो बच्चे भी हैं?’’
रंजन जी सकते में आ गए थे। उनसे कोई उत्तर नहीं बन पड़ा था लेकिन कविता की छोटी बहन सविता ने उन्हें उबार लिया था–‘‘मेरी नानी भी तो आप की ही तरह विधवा हैं ;लेकिन वो तो मीट–मछली, चिकेन,अंडा कुछ भी नहीं खाती। हमारी जाति में विधवा को ये मांसाहार मना है न ? दादी! पर आप तो खाती हैं?’’
हाथ का कौर हाथ में ही रह गया था। रंजन जी फिर सकते में थे।
‘‘पर.........पर, ‘‘आजकल’’ तो बहुत घरों में औरतें खाने ही लगी है। अब.....।’’ दादी ने झेंपते हुए सफाई दी थी।
‘‘तो आजकल’’ विधवा–विवाह भी हो रहे हैं न दादी माँ? कविता की बहन सविता ने तल्ख़ हो चुके माहौल को सहज करने की कोशिश की थी;पर दादी सहज कहाँ हुई थी। जवाब में न तो उनकी जबान से कुछ निकला था और न चिकेन के भगोने में पड़े चम्मच से चिकेन। उनके हाथ चम्मच पर शिथिल हो गए थे।

 
 
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