वह मेरे सामने खड़ा था। मैंने उसे बैठने का संकेत किया था, बावजूद इसके वह हाथ जोड़े खड़ा था। उसे अपनी बेटी का डुप्लीकेट अंक पत्र बनवाया था ;जिसकी जरूरत उसे दो दिन बाद बी.टेक. में दाखिले के वक्त पड़नी थी। ‘‘कल शाम को बेटी की ट्रेन है। कल शाम तक मिल जाता तो बड़ा अहसान होता।’’ उसने हाथ जोड़कर अनुरोध किया। हालाँकि उसे लगभग यकीन हो गया था कि उसका काम नहीं हो पाएगा। उसका ऐसा सोचने के पीछे बड़ा मजबूत आधार था। वह नगर निगम में इस्पेक्टर के पद कार्यरत था। पिछले दिनों में उसके पास एक अर्जी लेकर गया था कि मेरे घर की पैमाइश गलत हुई है तथा इस बार के गृहकर बिल में पिछले तीन वर्षों का बकाया चढ़कर आ गया है ,जबकि हर साल गृहकर जमा किया गया है, उसकी रसीद भी है। इसे ठीक करा दें। दो -चार बार तो वह मुझे टहलाता रहा और जब उसे पूरा इत्मीनान हो गया है कि मैं उसकी बात नहीं समझ पा रहा हूँ, तो उसने बड़े खुले शब्दों में पैसे की बात की। ऐसे में मेरा बिगड़ना स्वाभाविक था। आवेश में मैंने उसे फटकारा और उसकी शिकायत करने उसको नौकरी करना सिखा देने की चुनौती दे डाली। वह भी तैश में आकर चुनौती स्वीकार करते हुए चीखा ‘मंत्रायल तक मेरी शिकायत कर देना, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।’
मैंने उसे द्वितीय अंकपत्र के लिए फार्म भरकर सौ रुपये जमा करा देने को कहा और यह भी जोड़ा कि शाम को आकर अंकपत्र ले जाए औपचारिकताओं की पूर्ति के बाद वह कैशियर द्वारा दी गई रसीद के साथ पुन: आया और पूछा ‘‘आज शाम को ही आना है’’ मेरे हाँ करने पा भी वह सशंकित ही गया। शाम को अंक पत्र प्राप्त करते हुए वह मेरे प्रति कृतज्ञ था। आभार प्रकट करते हुए उसने एक सफेद लिफाफा मेरी ओर बढ़ाया। ‘यह बच्चों की मिठाई के लिए।’’
अब बात मेरे बर्दाश्त के बाहर थी। मैंने घण्टी बजाकर सुरक्षाकर्मी को बुलाया और उसे धक्के देकर कार्यालय परिसर से बाहर क्रने का हुक्म दिया। उसकी आँखों में निर्ल्ज्जता थी ,पर वह इस बात से कुछ ज्यादा ही हैरान था कि जिस सुविधा शुल्क को लेते हुए वह कभी अपमानित नहीं हुआ आज वही देते वक्त इतना अपमानित क्यों होना पड़ा।
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