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लघुकथाएँ - देश -जितेन्द्र कुमार
मट्ठा पर आफत

साहब से बातचीत पक्की हो गई थी। तदनुसार पूरी रकम उसने साहब को दे दी थी। एक सप्ताह के अंदर नियुक्ति पत्र मिल जाने की पूरी संभावना थी। दो–तीन दिन वह और रूक गया। कहाँ आया पत्र। कहीं डाक में पड़ा हो। उसकी बेचैनी बढ़ती गई। आखिर वह साहब के पास पहुँचा। नजरें मिली। साहब समझ गए। क्या हुआ? मिला लेटर आपको?
‘‘नहीं सर! कहाँ मिला? इसलिए तो आना पड़ा।’’
‘‘डिस्पैच में पड़ा होगा। डिस्पैच बाबू से पूछिए।’’
‘उनसे मिला। बोलते हैं जाएगा न, हड़बड़ी क्या है?’’
साहब को अजीब लगा। उन्हीं की बिल्ली उन्हीं को म्याऊ! घंटी पर उँगली चली गई। कर्र–कर्र–कर्र ।आदेश उपस्थित हुआ।
‘‘डिस्पैच बाबू हाजिर।’’
‘‘क्या हुआ? दस दिन पहले इनके नियुक्ति पत्र पर दस्तखत किए थे। अभी तक डिस्पैच में ही पड़ा है?’’
‘‘सर! मेरी मुराद सौ–पचास रुपए की है। बीस–बीस हजार डालते इनको कोई दिक्कत नहीं हुई। सब छाली खा गए लोग। मेरे लिए मट्ठा पर भी आफत है!’’
इस बेबाकी से साहब अवाक् रह गए।
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