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लघुकथाएँ - देश -चन्द्ररेखा ठडवाल
विडम्बना

शादी को करीब–करीब नौ साल होने लगे थे, पर पति के साथ वह यों डेढ़ महीने से ज्यादा नहीं रह पाई है। आज जब यमुना नगर से चिट्ठी आई कि साथ ड्राइवरों से अलग होकर पति ने एक कमरे व रसोई वाला घर किराए पर ले लिया है और तीन–चार दिन में वह उसे लेने आ रहे हैं; तो दूध की धार लेती; उपले थापती और ससुर की झिड़कियाँ तक सुनते गुनगुनाती रही है वह सारा दिन। रात लालटेन की लौ में खत लिखने बैठी–‘‘तीन चार दिन में क्यों बलमा, अभी के अभी आ जाओ न’’। अचानक पति की पितृ भक्ति याद आ गई। ऐसा न सोचें कि यह तो बस तैयार बैठी थी। अपनी खुशी और जल्दबाजी दोनों को परे कर के औपाचारिकता सी निभाते लिख दिया- ‘‘घर में बुजुर्ग अकेले हैं। वह थोड़ा बहुत निभा तो लेंगे पर मुझे ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा, आगे तुम सोचो जी।’’ अगली सुबह पत्र डाक में डाल दिया और साथ ही जाने की तैयारी में भी लग गई। हर शाम पति का मनपसंद खाना बनाती और हर रात उदास होकर सो जाती। पति तो नहीं आए पर हफ्ते भर बाद उनकी चिठी मिली। ‘‘मैंने किराए का घर छोड़ दिया है और वापिस साथियों के डेरे में रहने लगा हूँ। तुम ससुर की रोटियाँ बनाती रहो।’’
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