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लघुकथाएँ - देश -सुधा ओम ढींगरा
अनुत्तरित

दरवाज़े पर ही वह ठिठक गया । बंद दरवाज़ा खोल नहीं पाया । अन्दर से बॉस की फ़ोन पर किसी से बातें करने की आवाज़ आ रही थी ।
''सर, कंपनी को परम्परावादी तरीके से चलाने वाला लीडर चाहिए और जॉन वाईट, वह कज़ेर्वेटिव नहीं, बहुत आज़ाद प्रवृति का है। सर वह कैथोलिक भी नहीं। ''
''नहीं सर, रिपब्लिकन नहीं.... मुझे तो अभी-अभी पता चला, वह डेमोक्रेट है। जी...जी समझ गए आप....उदारवादी व्यक्ति देश और कंपनी नहीं चला सकता।''
''बॉब कॉलड्वेल..नहीं सर..वह पहले ही अफ्रीकन माइनर होने से काफ़ी पदोन्नति ले चुका है। तरक्की के लिए अब उसे कुछ वर्ष इंतज़ार करने दें। सर, अपने बुजुर्गों की कुर्बानी को ये लोग कैश करना चाहते हैं।''
''जूली गूज़ो....सर यहाँ भी वही बात है महिला होने का लाभ ले रही है। बॉब और जूली दोनों इस पद के काबिल नहीं ।''
''और सुमीत...''
अपना नाम सुन कर वह सतर्क हो गया।
''सर, एशियंस ख़ास कर भारतीयों को पद देने की ज़रूरत नहीं होती, हर साल वेतन थोड़ा बढ़ा दें, अच्छा बोनस दे दें और बस पद का लालच...दस लोगों का काम कर देंगे ।बहुत मेहनती होते हैं । जी...जी सर, सुमित के लिए यह सब सुविधाएँ मैं अपने बजट से कर सकता हूँ।''
''सर, हटा दें इस पद को। यह बड़ी महँगी पोज़ीशन है, कंपनी के खर्चे बहुत बढ़ जाएँगे और काम तो सुमीत से करवा लेंगे, मुझ पर छोड़िए।''
उसे लगा, उसका शरीर शून्य में लटक रहा है। देश की विसंगतियों से भागकर वह यहाँ आया था। अब वह भागकर जाए तो कहाँ जाए ......
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