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लघुकथाएँ - देश -ममता तिवारी
कोई गल्ल नहीं जी

हम खूबसूरत होना भूलते जा रहे हैं। हम चांद को प्रेम का प्रतीक, धरा को धैर्य का, सूरज को मामा, बरसात को मुहब्बत, ठंड को गर्म मूँगफली, गर्मी को कुल्फी से जोड़ना भूलते जा रहे हैं। हम चाँद पर पानी खोज कर क्या करने वाले हैं, वहाँ भी जा कर हमें, पानी का दुरुपयोग ही करना है। धरती को खोदकर कितना हीरा निकालेंगे जब जिंदगी कोयला हो जाएगी। सूरज वैसे ही आग बबूला हो रहा है, बरसात, कीचड़,बाढ़ में तब्दील हो रही है, कुल मिलाकर मोहबत के सारे मौसम लापता है। नहीं....इतना नकारात्मक नहीं जा रही मैं।
अनायास याद आया सालों पहले इक नौजवान टैक्सीवाला सरदार दिलीप सिंह । जिसकी 15 दिन पहले शादी हुई थी, मेंहदी की सौंधी खुशबू लिए,घरवाली का घूँघट उठाए बिना मुझे अंबाला स्टेशन से शिमला, नालंदेहडा, चेहल की यात्रा पर लेकर निकला था। बातों–बातों में पता चला उसे सोते से कोई उठा कर मंडप में ले गया और घरवाली को माँ बाप की सेवा में छोड़ मेरी सेवा में हाजिर हो गया।
पुराने रोमांटिक गीतों को सुनाता बार–बार दिलीप सिंह भावुक हो जाता तो में शर्मिदा हो जाती और मेरे अफसोस पर भोली सी मुस्कान से कहता ‘‘कोई गल्ल नहीं जी’’ जिन्दगी पड़ी है सुहागरात मनाने को’’।
अपने प्रायश्चित के लिए मैंने उसकी घरवाली के लिए एक सूट खरीद कर दिया,फिर तो दिलीप सिंह मानो पूरा मेरा भक्त हो गया। कहने लगा ‘‘आप ज्यादा न सोचो जी, सब रब्ब की मर्जी है।’’
शाम होने को आ गई पानी, चाय पीते मैं निढाल हो गई। खाने को कुछ ढंग का नहीं मिल पा रहा था। दिलीप सिंह ‘‘बस्स थोड़ी देर और है जी’’ ‘‘कोई गल्ल नहीं जी’’ कह कर मुझे सांत्वना दिये जा रहा था, मेरी भूख बावली होकर गुस्से में बदलने लगीं ।मेरे क्रोध पर मुस्कुराते हुए दिलीप सिंह ने कहा ‘‘आप ये सोचो जी कि रब्ब ने हमारे लिए कुछ बेहतर सोच रक्खा है जी’’ तभी ना ‘‘बस थोड़ी दूर और है जी’’।
मैं निढाल होकर ऊँघने लगी, थोड़ी देर में ऊंघ से जगाते हुए हँसता हुआ दिलीप सिंह कह रहा था ‘‘मैं नहीं कह रहा था जी रब्ब ने हमारे लिए कुछ अच्छा सोच रखा है। मुँह हाथ धो लीजिए भंडारा ग्रहण कीजिए’’। सामने साफ, सफेद गुरुद्वारा था, शुद्ध देशी घी के कड़ाह प्रसाद की सौंधी खूशबू ने मेरी भूख बढ़ा दी। मैंने दिलीप को खुदा का बंदा मानकर सदा के लिए ये सीख गाँठ बाँध ली कि परेशानी हमें यह बताने के लिए होती है कि भगवान हमें और भी अच्छा देगा। मुश्किलें हमारे धैर्य की परीक्षा के लिए होती है। अब जब भी कोई मुश्किल आती है मैं आँख मूँदकर दिलीप सिंह का स्मरण करती हुई और मन को थपथपाते हुए कहती हूँ कि ‘‘कोई गल्ल नहीं जी!’’
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