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लघुकथाएँ - देश -श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’
घर

उसने साइकिल उठाई और मास्टर प्यारा लाल के घर जाने का मन बना लिया। मास्टर प्यारा लाल उसे कुछ दिन पहले किसी दोस्त के साथ मिला था। बातों–बातों में कुछ करीब आ गए और एक दूसरे को घर का पता देकर, दोबारा मिलने का वायदा किया।
उसने साइकिल माडल टाऊन के रास्ते पर डाल, मकानों के नम्बर देखने शुरु किये। कुछ ही मकान क्रम में मिले, फिर यह सिलसिला टूट गया। मास्टर प्यारा लाल का नम्बर क्रम में न मिला।
उसने साइकिल रोककर पूछा, ‘चालीस नम्बर किधर होगा?’
‘चालीस, चालीस किसका घर है?’
‘मास्टर प्यारा लाल।’
‘देखो जी, नम्बर तो यहां उलट–पुलट हैं, कुछ और नहीं पता?’
‘हाँ, बता रहे थे, स्कूल की पिछली दीवार के पास है।’
‘फिर तो आप उधर जाएँ।’
उधर भी पता न चला तो किसी ने कहा कि यहाँ एक परचून की दुकान है, उसे शायद पता हो, वह सामने मन्दिर के पास।’
उसने सोचा, चलो उससे भी पूछ लेते हैं।
दुकान वाले से पूछने पर पता चला, ‘वो पास ही रहते हैं मास्टर जी, मन्दिर के बिल्कुल साथ वाला मकान है।’
घर मिल गया। उसने घर में घुसते ही कहा, ‘मास्टर जी, कमाल है, आपका घर मन्दिर के पास, आप स्कूल की निशानी बता रहे थे, वह तो पिफर भी दूरी पर है।’
‘मन्दिर वाली निशानी बताओ ना बहुत दोस्त आते ही नहीं मिलने।’ मास्टर प्यारा लाल ने गम्भीर होते कहा।
‘पर आप समझदार हैं, आपको यह पता भी होगा, आपको कहीं और लेना था घर।’ उसने एक और प्रश्न कर दिया।
‘सारी बातें सही हैं, दोस्त, पर इस गरीब मास्टर को कहीं और सस्ता मकान मिलता भी तो नहीं था।’ उसे लगा, बात यह भी गम्भीर होने वाली ही है।

 
 
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