जिलेसिंह शहर से वापस आया तो आँगन में पैर रखते ही उसे अजीब -सा सन्नाटा पसरा हुआ लगा ।
दादी ने ऐनक नाक पर ठीक से रखते हुई उदासी -भरी आवाज में कहा -‘जिल्ले ! तेरा तो इभी से सिर बँध ग्या रे । छोरी हुई है !’
जिलेसिंह के माथे पर एक लकीर खिंच गई ।
‘ भाई लड़का होता तो ज़्यादा नेग मिलता। मेरा भी नेग मारा गया’- बहन फूलमती ने मुँह बनाया-‘पहला जापा था । सोचा था- खूब मिलेगा।’
जिले सिंह का चेहरा तन गया। माथे पर दूसरी लकीर भी उभर आई ।
माँ कुछ नहीं बोली । उसकी चुप्पी और अधिक बोल रही थी । जैसे कह रही हो-जूतियाँ घिस जाएँगी ढंग का लड़का ढूँढ़ने में । पता नहीं किस निकम्मे के पैरों में पगड़ी रखनी पड़ जाए ।
तमतमाया जिलेसिंह मनदीप के कमरे में घुसा । बाहर की आवाजें वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थीं । नवजात कन्या की आँखें मुँदी हुई थीं । पति को सामने देखकर मनदीप ने डबडबाई आँखें पोंछते हुए आना अपना मुँह अपराध-भाव से दूसरी ओर घुमा लिया ।
जिलेसिंह तीर की तरह लौटा और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चौपाल वाली गली की ओर मुड़ गया ।
‘सुबह का गया अभी शहर से आया था । तुम दोनों को क्या जरूरत थी इस तरह बोलने की ?’ माँ भुनभनाई । घर में और भी गहरी चुप्पी छा गई ।
कुछ ही देर में जिलेसिंह लौट आया ।उसके पीछे-पीछे सन्तु ढोलिया गले में ढोल लटकाए आँगन के बीचों-बीच आ खड़ा हुआ ।
‘ बजाओ !’ जिलेसिंह की भारी भरकम आवाज गूँजी ।
तिड़क-तिड़-तिड़-तिड़ धुम्म , तिड़क धुम्म्म ! ढोल बजा।
मुहल्ले वाले एक साथ चौंक पड़े । जिलेसिंह ने अल्मारी से अपनी तुर्रेदार पगड़ी निकाली, जिसे वह वह शादी-ब्याह या बैसाखी जैसे मौके पर ही बाँधता था। ढोल की गिड़गिड़ी पर उसने पूरे जोश से नाचते हुए आँगन के तीन-चार चक्कर काटे । जेब से सौ का नोट निकाला और मनदीप के कमरे में जाकर नवजात के ऊपर वार-फेर की और उसकी अधमुँदी आँखों को हलके - से छुआ । पति के चेहरे पर नजर पड़ते ही मनदीप की आँखों के सामने जैसे उजाले का सैलाब उमड़ पड़ा हो । उसने छलकते आँसुओं को इस बार नहीं पोंछा ।
बाहर आकर जिलेसिंह ने वह नोट सन्तु ढोलिया को थमा दिया ।
सन्तु और जोर से ढोल बजाने लगा -तिड़-तिड़-तिड़ तिड़क-धुम्म , तिड़क धुम्म्म ! तिड़क धुम्म्म ! तिड़क धुम्म्म !!
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