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लघुकथाएँ - देश - कमल चोपड़ा
इतनी दूर

खबर फोन पर मिली थी जिसे सुनकर वह एकाएक उदास हो गई थी। घबराकर पति ने पूछा था – खैर तो है? भर्राये स्वर में उसने कहा – भैया कंपनी की तरफ से यू.के. जा रहे हैं। एक ही तो भाई है मेरा, वो भी विदेश जा रहा है। इतनी दूर!
ठहठहा कर हंस पड़ा – अरे यह तो खुशी की बात है। यहाँ रखा ही क्या है? विदेश की बात ही कुछ और है। वैसे भी अब तो ग्लोबलाईजेशन हो चुका है! अब क्या देश कया विदेश, कहीं कोई फर्क नहीं! दूरियाँ घट रही हैं। बटन दबाओ और जिससे मन चाहे बात कर लो। एक ही शहर में रहते हुए भी रोज रोज कहाँ मिलना हो पाता है? साल भर बाद कभी किसी शादी ब्याह में मिल लिये तो मिल लिये। आम तौर पर फोन पर बात होती है। फोन के लिये अब कहीं कुछ क्या दूर। फोन पर बात करके मिले बराबर हो जाता है। मुझे देखो मेरा एक भाई कनाडा में है और बहन यू.एस.ए. और जब से पुराना मकान बेच कर यहाँ दो फ्लोर लिये हैं बापू ग्राउंड फ्लोर पर रहते हैं और हम थर्ड फ्लोर पर फिर भी बापू को कई कई दिन बाद मिलना हो पाता है। मोबाइल एस.एम.एस और नेट ने सब कुछ पास पास कर दिया है। सारी दुनिया एक गाँव बन चुकी है इसलिए तुम्हारी उदासी का कोई मतलब नहीं। बस एक क्लिक और दूरियाँ खत्म..... हा हा
तभी कालबैल बजी। लपककर उसने छज्जे से नीचे झाँका। बाबूजी वाले पोर्शन के बाहर तीन चार लोगों के साथ बाबूजी की कामवाली बाई खड़ी थी। लपककर वह नीचे आया।
दरवाजा अन्दर से बन्द था। बाबूजी खोल ही नहीं रहे थे। पड़ोसी ने आगे बढ़ कर कहा – मुझे तो यू.एस.ए. से आपकी सिस्टर का फोन आया था। बाबूजी ने ही दिया होगा उन्हें मेरा नम्बर। सिस्टर कह रही थी वे दो दिन से बाबूजी को फोन मिला रही हैं। नो–रिप्लाई जा रहा है। बाबूजी उठा ही नहीं रहे। उन्हें चिंता हो रही थी। सिस्टर ने ही बताया कि इसी बिल्डिंग में आप थर्ड फ्लोर पर रहते हैं। ये आपके फादर हैं ,मुझे तो पता ही नही था! ऐसा कभी जिक्र ही नहीं हुआ न? मैं खटखटा ही रहा था कि ये कामवाली भी आ गई....।
कामवाली के चेहरे पर भी चिंता थी – मैं अब्बी आई तो ये दरवाजा खटखटा रहे थे ;पर बाबूजी दरवाजा ही नहीं खोल रहे। परसों काम के सुबह ग्यारह बजे जब मैं यहाँ से गई तब तक तो बाबूजी ठीक -ठाक थे। कल होली को मेरी छुट्टी थी। कल मैं नहीं आई।
शर्म आ रही थी उसे। इतना पास रहते हुए भी उसने कई दिन से बाबू जी की कोई
सुध नहीं ली थी। अपनी ही दुनिया में मस्त था। फोन तक नहीं किया! और बाबू जी इधर....। दरवाजा तोड़ा गया। सामने ईजी चेयर पर बाबू जी बेजान पड़े थे। गर्दन एक तरफ को लुढ़की पड़ी थी। उनकी खुली हुई आँखें दरवाजे की ओर ताक रही थीं जैसे किसी का इंतजार कर रही हों।
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