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लघुकथाएँ - देश - बलराम अग्रवाल
चारदीवारी

दोस्त एक बड़े पत्र-समूह में संपादक के तौर पर कार्यरत था। किसी सेमिनार में हिस्सा लेने दिल्ली से आया था। पुरानी दोस्ती का मान रखते हुए तीन में से एक रात उसने मेरे घर रुकना स्वीकार किया था।
रात का खाना खा चुकने के बाद मुझे टहलने जाने की आदत है। उसे साथ लेकर मैं घर से बाहर निकल आया। मुख्य सड़क पर पहुँचकर हम एक ऊँची चारदीवारी के बराबर से गुजरने लगे।
“बड़ी लम्बी चारदीवारी है!” उसने आश्चर्यमिश्रित स्वर में सवाल-सा किया।
“तीन किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली है।” मैंने उसे बताया।
“क्या है?” उसने पूछा।
“नब्बे के दशक में उजड़ी एक इण्डस्ट्री है।” मैं बोला,“उन दिनों छत्तीस हजार लोग काम करते थे इसमें। मजदूरों और मालिकों के बीच किसी मसले पर बात ऐसी बिगड़ी कि लड़ाई छिड़ गई और…”
“उल्ले के पट्ठे ,” - वह गुस्से में बोला,“आपने लड़ाई छेड़ दी, उसने इण्डस्ट्री समेट ली। आप बेरोजगार, बेघर-बार हो गये। आपके बच्चे दाने-दाने को, दवाई को, कपड़े को मोहताज हो गए। उसका क्या बिगड़ा?”
दोस्त मध्यमार्गी है, पूरी तरह सुविधाभोगी।—इस जानकारी के चलते जवाब में मैंने कुछ नहीं कहा।
“तू बुरा मानेगा,” मेरी चुप्पी के बरखिलाफ कुछ देर बाद वही बोला,“लेकिन मैं ऐसी किसी भी लड़ाई के खिलाफ हूँ जिसमें खुद अपनी और अपने बच्चों की ही जान पर बन आए।”
“जान की परवाह करने वाले कभी लड़ पाते हैं क्या?” उसकी इस बात पर मैंने किंचित कड़ा सवाल किया।
“ठीक है, लेकिन एकदम अंधे होकर…” वह बोला।
“आजादी की हर लड़ाई की शुरुआत हमारे अंधे पूर्वजों ने ही की है दोस्त!” इस बार मैंने पूरे तीखेपन से उसे टोका,“जीत जाने के बाद, हम आँखों वाले, सुख भोगते हुए उन बहादुरों को गालियाँ दे रहे होते हैं, बस।”
वह मेरी मूर्खताओं से पूरी तरह परिचित था। शायद इसीलिए इस पर उसने तुरन्त कुछ नहीं कहा। दो पल बाद पूछा,“इस चारदीवारी का पूरा चक्कर लगाना है क्या?”
“मैं तो रोजाना लगाता ही हूँ।” मैंने कहा,“लेकिन तुम थक गए हो तो आज रात बस इतना ही रहने देते हैं।”
वह चुप रहा। उस चुप्पी के अर्थ को महसूस करते हुए मैं वापस घर की ओर घूम लिया।

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