सुबह–सुबह दरवाजे पर गंगू दलाल को खड़ा देख नन्हा दुलारे काँप उठा। वह दौड़ता हुआ आँगन में खड़ी अपनी माँ के पास जाकर पूछा–माँ , गंगू आज यहाँ क्यों आया है।’
‘अपनी गाय को खरीदने बेटा।’
माँ न अनमने भाव से संक्षिप्त -सा उत्तर देकर दरवाजे पर चली गई और गंगू से मोलभाव करने लगी। कुछ देर की हूल–हूज्जत के बाद गाय की कीमत पंद्रह सौ तय हुई जिसे चुकता कर गंगू ने गाय की डोरी थाम ली।
उसी समय दुलारे ने पुन: टोका, ‘ ‘माँ तू ने गाय को क्यों बेच दिया?’
‘अब वो बूढ़ी हो गई थी न बेटा, इसीलिए’
दुलारे कुछ देर तक गंगू के साथ आ रही गाय को एकटक देखता रहा। फिर कहा–‘मगर बापू तो कहते हैं कि गंगू तो कसाई के हाथों में बेचकर उसे कटवा देता है,तो क्या तुम्हें पाप नहीं लगेगा?’
बेटे की बात सुनकर माँ एक बारगी काँप उठी। गंगू द्वारा दिए गए रुपयों को गिन रही उसकी अँगुलियाँ शिथिल पड़ गई। बेटे द्वारा पाप–पुण्य की बात छोड़ देने के कारण उसके भीतर किंचित झुँझलाहट के साथ एक अजीब किस्म का डर भी पैदा हो गया।
किंतु तत्क्षण ही स्वयं को आश्वस्त करने के ख्याल से बोली–‘बेटा! पाप से बचने के लिए ही तो सीधे कसाई के हाथों न बेचकर पाँच सौ का घाटा उठा रही हूँ, नहीं तो दो हजार में न बेचती’ फिर कुछ पल रुककर एक गहरी साँस खींचकर इत्मीनान से बोली–‘अब इस पाप की जिम्मेदारी गंगू पर ही होगी, बेटा।’
बेटा अवाक भाव से काफी देर तक अपनी माँ का चेहरा देखता रहा। शायद पाप–पुण्य का यह हस्तांतरण वह समझ नहीं सका था।
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