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लघुकथाएँ - देश - तरसेम गुजराल
सेवा भावना

मोहल्ले में ही घर से थोड़ी दूर एक मकान में एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे। बुढ़िया दूध सब्जी का हिसाब लगवाने या छुट्टे पैसे लेने घर आया करती थी। उनकी उमर का तकाजा था कि हम उन्हें पूरी इज्जत दें और यथा संभव छोटे–मोटे कामों में मदद करें, सो करते रहे। वे अपने बेटे की बहू का बहुत बखान करती थीं। ‘‘बेटा बैंक का मानीजर है, बहू ऐम्मा पास है। दोनों बहुत अच्छे हैं। आदर्श नगर में रहते हैं। बाबा से पुश्तैनी मकान छोड़ा नहीं जाता। नहीं तो बहू बेटे की ओर से कोई कमी नहीं।’’
उस दिन सुबह बाबा का सीढि़याँ उतरते पाँव फिसल गया। माथे पर गहरी चोट आई। बुढ़िया बहुत परेशान थी। मैंने उनसे उनके बेटे का नाम पूछा और कहा कि जाते वक्त बैंक में उन्हें सूचित करता जाऊँगा। बुढ़िया ने बहुत–सी आशीशें लुटाते हुए अपने बेटे का नाम बताया और ताकीद की कि बेटे को सिर्फ़ यही बताया जाए कि माँ ने बुलाया है। बाबा के गिरने की खबर न दी जाए। नहीं तो बहुत घबरा जाएगा।
बैंक पहुँचने पर पता चला कि वे छुट्टी पर हैं, वहाँ से कोठी का पता लेकर कोठी पहुँचे तो एक अदद मैक्सी ने स्वागत किया।
वे तो घर पर नहीं हैं। आप कहिए क्या काम है? बताना पड़ा कि उनके ससुर सीढ़ियों से गिर गए हैं, संभव हो तो साथ ही चले।
जवाब में कहने लगीं–‘‘आज मैं कैसे जा सकती हूँ ? अभी तो मैंने हेयर डाई भी नहीं किए। आप तो समझते ही हैं न।’’
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