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लघुकथाएँ - देश - रमेश गौतम
बंद आँखें

‘‘आज हमारे छात्रों के जीवन से संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं। बच्चों को चाहिए वे बुरी संगत से दूर रहकर चरित्रवान बनें। कितना दु:ख होता है जब छोटी उम्र में ही बालकों को धूम्रपान करते देखा जाता है।’’
आज फिर प्रेयर ग्राउंड में नैतिक शिक्षा पर प्रवचन देकर सिंह साहब वापस स्टाफ रूम में आए तो थके से लगे। लंबी आराम कुर्सी पर पैर फैलाकर बैठ गए। कुछ देर में सामने की कक्षा में प्रवेश करते छात्र को संकेत से अपने पास बुलाया।
‘‘कौन सी क्लास में पढ़ते हो?’’
‘‘सर सेविंथ ‘ए’ में।’’
‘‘ हूँ। जाओ जरा गेट के बाहर वाली पान की दुकान से दौड़कर एक सिगरेट तो ले आओ। हाँ, चौकीदार से माचिस भी माँग लेना।’’ आराम कुर्सी पर करवट बदलते हुए उन्होंने सिक्का निकाला।
‘‘लेकिन सर मेरा इंग्लिश का पीरियड शुरू होने....’’
‘‘ हाँ–हाँ ठीक है, पहले सिगरेट लेकर आओ, दो मिनट में कुछ नहीं होता।’’ और सिंह साहब ने आँखें बंद कर लीं।
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