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लघुकथाएँ - देश - विपिन जैन
कंधा

पूरी तरह भीड़–भरे डिब्बे में हमने भरपूर नज़र दौड़ाई, पर बैठने की कहीं भी गुजांइश नहीं थी। मुझे थोड़ा विस्मय भी हुआ आतंकवाद से ग्रस्त पंजाब जाने वाली गाड़ी में इतनी भीड़ ! मैं अखबार में रोज दशहतभरी खबरें पढ़–पढ़कर एक अज्ञात डर से भरा उस तरफ की यात्रा कर रहा था। मजबूरी की इस यात्रा में आतंक का साया भी साथ था। जहाँ हम खड़े थे वहीं बैठे एक तराशी दाढ़ी और कठोर -सी मुद्रा वाले युवक ने अनपेक्षित रूप से सरकते हुए कुछ जगह बनाई। मैंने वसुधा को वहीं बैठा दिया। कुछ देर बाद वह युवक उठकर टॉयलेट की ओर जाने लगा तो आशंकाओं ने अपना फन उठाया। वसुधा मुझे उसकी जगह बैठाकर मेरे कान में फुसफुसाई–‘‘कहीं ये वो ही तो नहीं आतंकवादी ! क्या पता लौटने पर कोई कांड कर धूँ–धूँ...कर भून दे! सीट के नीचे बम रख गया है। उसने चोर निगाहों से सीट के नीचे भी झाँका।’’
कठोर मुखमुद्रा व चुप रहने के इशारे से मैंने उसे डाँटा–बेकार की बातें मत करो, चुप बैठी रहो।
मैं उसके नासमझ डर के बारे में सोचने लगा था। घर से निकलेंगे तो यह खबरों का असर दूर हो जाएगा। फिर जो होना है, वो होगा! मैं तब सोच रहा था, ‘‘अज्ञानता का भय या जानकारी का भय में कौन–सा ठीक है।’’
ट्रेन स्टेशन–दर–स्टेशन दौड़ती जा रही थी। वह युवक भी टायलेट से आकर अपनी जगह बैठ गया। मुझे भी जगह मिल गई थी। यात्री उनींदे से लगने लगे थे। तभी मैंने वसुधा की ओर देखा। वह नींद में बेसुध- सी थी। और उसका सिर उस युवक के कंधे पर टिका हुआ था। वह शंकित आतंकवादी अपनी परेशानी के बावजूद अपना कंधा स्थिर किए हुए था।
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