गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
लघुकथाएँ - देश - रश्मि बड़थ्वाल
सौंदर्य

उस सँकरी गली में बान की चारपाइयाँ पड़ी थीं और उन पर तीन–तीन चार–चार औरतें बैठी थीं। कोई स्वेटर बुन रही थी, कोई सब्जी काट रही थी, कोई जूँ मार रही थी, कोई उँगलियाँ चटखा रही थी। कलुवा को अकेला देखकर उन्होंने बुला लिया।
‘‘क्यों रे, तेरी अम्मा कहाँ है?’’
‘‘खाना बना रही है।’’
स्ब जानती थीं कि कलुवा कि अम्मा बड़ी लद्धड़ है। चौके में घुसती है तो चार घंटे चिमटा–करछुल की ही होकर रह जाती है। मनोरंजन के लिए वे इत्मीनान से कलुवा की माँ की धज्जियाँ उड़ाने लगीं। कलुवा की अम्मा की आँखें छोटी, होंठ कुछ मोटे, दाँत बड़े–बड़े रंग काला, कद ठिगना और देह भारी है। सबके बीच आकर नहीं बैठती। वह उन सब के लिए हँसी–ठठ्ठा बनी रहती है।
‘‘कलुआ,तेरी माँ की आँखें कैसी है?’’
‘‘चमकीली।’’
‘‘तेरी माँ के होंठ कैसे है?’’
‘‘बहुत अच्छे, मुलायम हैं। जब–तब मुझे चूमते रहते हैं।’’
‘‘तेरी अम्मा के दाँत कैसे है?’’
‘‘मोती जैसे।’’
‘‘तेरी अम्मा का रंग कैसा है?’’
‘‘किशन जी जैसा।’’
‘‘तेरी अम्मा तो बहुत छोटी है, मोटी भी और भद्दी भी।’’
‘‘नहीं, मेरी अम्मा की गोद बहुत गुदगुदी है।’’
‘‘मेरी अम्मा भौत–भौत सुन्दर है। भद्दी और गंदी तो तुम सब हो, जो मेरी अम्मा की बुराई करती हो। वह जब हँसती है, तब भी सुंदर लगती है।’’ सुनकर उस नन्हें -से बच्चे के सामने वे अधेड़ और बूढ़ी औरतें बगलें झाँकने लगी थीं।
-0-

 
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above