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लघुकथाएँ - देश - विद्या लाल
चिंता

रंजीत की शादी हाल ही में हुई थी। उसकी तरफ से पार्टी थी। खाने–पीने और हँसी–ठहाकों का दौर चल रहा था–‘‘यार रंजीत, तेरी किस्मत से तो रश्क होता है। शादी से पहले भी जुगाड़ भिड़ा लेता था और अब शादी भी हुई तो जन्नत की परी से!’’ रमन ने आह भरते हुए कहा था।
‘‘हाँ यार! अब तो रंजीत पत्नीव्रता बन जाएगा, ऐसी सूरत से नजर हटेगी भला?’’
‘‘नहीं यार! पराई नारी की बात ही कुछ और होती है। ऊपरी कमाई न तो वेतन से भला संतोष होता है?’’ रंजीत के इतना कहते ही ठहाकों की आवाज गूँज गई थी।
‘‘अब तेा ऐसा मत कहो रंजीत। तुम्हारी बीवी तुम्हारे दोस्तों के लिए पराई नारी ही है। अगर तुम्हारे इन दोस्तों ने इस मुहावरे पर अमल करना शुरू कर दिया तो तुम्हारी तो मुसीबत हो जाएगी।’’ वर्मा जी अपनी प्लेट लेकर दूसरी तरफ बढ़ गए थे।
‘‘ये बुड्ढ़ा खुसट, हमेशा बर्फ़ डाल देता है। जवानी में भी संत ही रहा होगा तभी जवानी के दस्तूर नहीं जानता।’’ रमन ने सन्नाटा तोड़ा था ,पर रंजीत को रमन की निगाहों से वाकई चिंता होने लगी थी जो लगातार उसकी बीवी पर टिकी हुई थी।
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