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लघुकथाएँ - देश - दिलीप भाटिया
सार्थकता

कैलाश प्रति जन्मदिन पर मंदिर की गुल्लक दान–पात्र में 101 रुपये भेंट कर आता था। इस वर्ष मंदिर जाते समय वह राह में इस दान की सार्थकता पर चिन्तन मनन मंथन करता रहा एवं लीक से हटकर सात्विक सार्थक दान करने का संकल्प लेते हुए विचार करता रहा।
मंदिर में पहुच कर देखा कि मंदिर कमेटी के अध्यक्ष, जो दान–पात्र की सम्पूर्ण राशि लेते हैं, मन्दिर परिसर में उनके निवास के बाहर वातानुकूलित कार खड़ी थी। अन्दर मन्दिर में पुजारी, जो दर्शनार्थियों को प्रसाद वितरित कर रहे थे, उनके समक्ष कूलर चल रहा था, एक भक्त मंदिर में तुलसी की 108 परिक्रमा कर रहीं थी।
कैलाश ने देखा कि एक वृद्धा माई मन्दिर के आंगन में झाडू लगाकर फर्श की सफाई करते समय अपनी पुरानी सी बदरंग साड़ी के पल्लू से माथे का पसीना पोंछ रही थी।
कैलाश ने 100 रुपये का नोट वापिस अपने पर्स में रखा। 500 रुपये का नोट निकाला एवं वृद्धा माई के चरणस-स्पर्श कर 501 रुपये उन्हें दिए एवं कहा ‘‘माताजी, आज मेरा जन्मदिन है, आप अपने लिए दो साड़ी खरीद लीजिएगा, मुझे आशीर्वाद दीजिए, माताजी‘‘।
मन्दिर का पुजारी कैलाश को घूर रहा था, पर वृद्धा माई पल्लू से आँखें पोंछती हुई ‘‘जीते रहो बेटा, भगवान तुम्हें सुखी रखे’’ का आशीर्वाद कैलाश को दे रही थी।
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