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लघुकथाएँ - देश - रत्नकुमार साँभरिया
फूल

ओह !आज तो मन्दिर जाने में देर हो गई ।दादी माँ ने दीवार घड़ी की ओर देखा। वे उतावली में गमले में लगे गुलाब के फूल को तोड़ने के लिए आगे बढ़ीं,तो उनका पाँचेक साल का पोता जिद्द कर बैठा कि फूल वह लेगा । दादी माँ ने जब उसे फूल न लेने के लिए कहा, तो वह रो-रोकर जिद पकड़ गया। वे उसको दुलारती हुई कहने लगीं-बेटे ,मैं तुम्हें ऐसे ही फूल मँगावा दूँगी ;लेकिन ये अपने घर के गुलाब हैं, मैंने इनको भगवान् के लिए रखा हुआ है।”
रोते-रोते बच्चे की साँस फूलने लगी थीं। दादी माँ की पूजा और बच्चे की ज़िद्द को लेकर पूरा परिवा दो खेमों में बँट गया था । कुछ का मानना था -बच्चे भगवान् का रूप होते हैं । फूल…। परिवार के दूसरे लोग कुपित थे कि दादी माँ की पूजा में विघ्न पड़ा तो, भगवान् नाराज़ होंगे ।
दादी माँ ने जब फूलों की ओर देखा, तो उनकी आँखें वहीं रुक गईं। फूलों का व्यथित मन मानों कह रह था-आदमी भी कितना नासमझ है ! वह अपने हाथों बनाए भगवान् के सामने खुद गिड़गिड़ाता है, हमें सूख-सूखकर मरने के लिए उसके चरणों में फेंक आता है ।
दादी माँ मानो सोकर जागीं । फूल लेकर बच्चे के हाथ में थमाया। और आँसुओं से धुले उसके गालों को चूमने लगी।

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