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लघुकथाएँ - देश - रतन चंद ‘रत्नेश’
लुटेरे

हम दोनों ने अपनी–अपनी पत्नियों और बच्चों को होटल में ही रहने दिया और समुद्र के किनारे आ गए। दूर–दूर तक फैला समुद्र का अनंत विस्तार। शहर की भागदौड़ भरी व्यस्त दुनिया से जुदा यह सुकून की दुनिया थी और पिछले एक सप्ताह से हम यहां के एक होटल में ठहरे थे। आखिर कल उसी भीड़ में फिर से लौट जाना था।
सागर किनारे दूर तक फैली रेत पर अपने अंतिम निशान छोड़ जाने के लिए हम बहुत दूर तक चले आए। विशाल ने जूट के थैले में रखी बीयर की दोनों बोतलें निकाल लीं और हम एकांत में आती हुई लहरों के सम्मुख जा बैठे। अपनी चाबी के छल्ले में लगे ओपनर से विशाल ने बीयर का ढक्कन खोला और मेरी ओर बढ़ा दिया। अपनी–अपनी बोतलें थामे हम आती हुई लहरों को गिनने का विफल प्रयत्न करने लगे। बीयर धीरे– धीरे खत्म हो रही थी। इस बीच हमने गौर किया कि कुछ युवक और अधेड़ हम पर निगाहें रखे हुए हैं! न जाने कहाँ से आकर उन्होंने मानो हमें अपने घेरे में ले लिया था। दिखने में गरीब, कृशकाय– हम पर भारी। वे पाँच थे और हम दो। उनकी निगाहें हम पर टिकी हुई थीं। बस, किसी मौके की तलाश में थे।
मैंने विशाल के चेहरे की ओर देखा। वहाँ हवाइयाँ उड़ रही थीं। मैं भी मन ही मन बहुत डर गया। गले में पड़ी सोने की चैन कॉलर में छिपाने की कोशिश की। विशाल ने धीरे– से कहा, ‘जितना पी सकते हो, पी लो। बोतल फेंको और यहाँ से खिसको। ’
मैं सुरूर में था। अपनी पेंट की दायीं जेब पर इस तरह हाथ मारा जैसे वहाँ पिस्तौल हो। पिस्तौल था नहीं। मोबाइल पर हाथ पड़ा। उसे निकालकर लहराते हुए उन्हें डपटा, ‘क्या है? भागो यहाँ से। ’ वे सकपकाए और हमसे कुछ दूर हट गए, पर उनकी निगाह अब भी हम पर थी। मैंने बीयर का अंतिम घूँट भरते हुए कहा, ‘विशाल, बोतल फेंको और भागो। ’
हमने बीयर की खाली बोतलों को वहीं रेत पर फेंका और अपने होटल की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाने लगे। वहाँ से हटे ही थे कि देखा वे चारों छीना–झपटी करते हुए खाली बोतलों पर टूट पड़े हैं।

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