गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
लघुकथाएँ - देश - जसवीर चावला
झापड़

गेट से बाहर निकलते न निकलते जवान की गाल पर रसीद हो गया। ‘‘मादर!...’’ मुँह से माँ की गाली निकली और हाथ से एक झन्नाटेदार तमाचा। सरदार जी पूरी तैश में थे–‘‘यहाँ सेहत से लाचार बीमार आते हैं सैर के लिए! सरे पार्क में धुआँ भर दिया। तुझे सिगरेट पीनी ही है तो वहाँ बैठ जा! दरख्त हेठाँ, जी–भर के पी ले!...साला सारी राह फूँकने का क्या मतलब....’’
जवान के साथ वाला दोस्त भी बड़बड़ाया। सुबह–सुबह की मीठी ठंड में यह कैसी बिजली आ गिरी? जवान गाल मलता रहा–दादे की उम्र का है बुड्ढा! दोनों चाहें तो यहीं सारी दबंगई झाड़ दें। आस–पास है भी नहीं कोई....अलस्सुबह!
पर बस गाल मलता सोचता रहा जवान–‘‘ मैं भी तो कभी सरदार था। बाल कटवाए तो बाप ने डाँटा भर था ,पर झापड़ नहीं लगा पाया, इकलौता बेटा सोचकर....। काश, यह झापड़ पहले पड़ता! सरदार रहता तो सिगरेट की लत भी न पड़ती! अब यह रात–बेरात की खटाली....वैसी ही संगत...’’
बुड्ढ़ा तेज़ कदमों से सैर करता दूसरा चक्कर लगा रहा था ;पर मन ही मन मसोसता –‘हाय, क्यों मारा झापड़? एक यही झापड़ तजिन्दर को मारा था ,जब वह केश कटवा कर आया था...और क्या हुआ था....? उसकी आँखें भर आईं– बेटा हाथ से भी निकल गया और साथ से भी निकल गया। बोला तो कुछ नहीं था तजिन्दर पर अगले दिन से दिखा–दिखा कर सिगरेट पीने लगा था।
                                                                                      -0-

 
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above