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लघुकथाएँ - देश - सविता पाण्डेय
छवियाँ ऐसे भी बनती हैं

यह हमारा नया खेल था। पिताजी के बाहर जाते ही माँ पिता बन जाती थी। माँ पिता
के कपड़े पहन कमरे से बाहर निकलती तो हम तालियाँ पीटने लगते। पिता बनी माँ के कंधों पर झूल जाते। जेबों में हाथ डाल टॉफियाँ ढूँढते। गोद में मचलते।…कि एक दिन ऐन खेल के वक्त पिता घर वापस आ गये। अपने कपड़ों में माँ को देख बिफर पड़े। हमारी परवाह किये बिना माँ के कपड़े उतार दिये। माँ के पैरों में पिता के जूते भर बचे थे। हम सब आश्चर्य में डूबे थे। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि हमारी नजरों में माँ नहीं, क्यों नंगे हो रहे थे पिता??!!!
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