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लघुकथाएँ - देश - जयमाला
फर्क

माँ बताया करती थीं कि जब भैया चार साल के थे, तब उनके टखनों से घुटनों तक पीब भरे घाव हो गए थे। माँ उनके घावों को अपने आँसुओं से धोया करतीं, उनकी चीखों को हृदय में भर-भर कर, उनपर शीतल स्पर्श का मलहम लगाया करती थीं। दसवीं की परीक्षा से लेकर नौकरी हो जाने तक माँ भी आधी नींद सोती थीं।
नौकरी मिली तो माँ को लगा, कि उनकी साधना पूरी हो गई। माँ से सैकड़ों किलोमीटर दूर रहने वाले भैया, पहले हर तीन महीने में माँ से मिलने घर आया करते थे। फिर छह महीनों में, फिर हरेक साल, फिर ……
कई-कई बीमारियों से जूझती-हाँफती अकेली माँ को अपने पास रखकर मैं उनका इलाज करवाती, खयाल रखती। स्वस्थ महसूसते ही माँ वापस चली जातीं।
एक दिन मैंने माँ से पूछा ‘‘माँ! जब आपने मेरी पढ़ाई-लिखाई और बाकी परवरिश में, मुझमें और भैया में कोई फर्क नहीं किया तो, मेरे साथ रहने में आपको क्या तकलीफ है?’’
‘‘बेटा और बेटी में फर्क नहीं है तो क्या हुआ, बेटा और दामाद में तो है न?मैं अपने दामाद के घर ज्यादा दिन कैसे रह सकती हूँ?’’
‘‘दामाद का घर?फिर मेरा…?’’
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