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लघुकथाएँ - देश - अनुपम अनुराग
स्मृति-संध्या

आज उसकी पहली बरसी थी। देश के लिए शहीद हुआ था वह। उस दिन तिरंगे में लिपटा हुआ उसका शव किसी देव-प्रतिमा का आभास दे रहा था। उसके चेहरे पर कहीं भी सात गोलियों के दर्द का निशान नहीं था, एक अदृश्य मुस्कुराहट थी। सारा शहर उमड़ पड़ा था उसकी विदाई में। औरतों ने उसकी राख को ताबीजों में भरकर अपने बच्चों के गले में पहनाया था। बड़े-बूढ़ों ने याद किया था कि बचपन से ही कितना देशभक्त था वह।
आज एक साल बीत जाने पर शहर के उत्साही नवयुवकों ने उसकी स्मृति-संध्या के बहाने शहर को देशभक्ति की फुहार में फिर से भीगने का कार्यक्रम बनाया था। टाउन हॉल खचाखच भरा था, तमाम गणमान्य अतिथि तथा नागरिक आए थे, तिल रखने की जगह नहीं बची थी। सभी को मुख्य अतिथि के ,जो कि इसी क्षेत्र के विधायक तथा राज्य सरकार में नगर विकास मंत्री थे - आने का इंतजार था,जिनके भाषण से ही कार्यक्रम का आरंभ होना था।
थोड़ी देर में हॉल में गर्मजोशी बढ़ गई। सबकी नजरें एक ही ओर थीं। मंत्री जी आगमन गेट से प्रवेश कर मंच की ओर बढ़ रहे थे। सफेद कुर्ता-पजामा पहने, कंधे पर तिरंगा गमछा डाले मंत्री जी बड़े प्रभावशाली लग रहे थे। उनके मंच पर पहुँचते ही कार्यक्रम संचालक ने औपचारिक रूप से उनके आगमन की सूचना दी तथा भाषण के लिए उन्हें आमंत्रित किया। हॉल में शांति छा गई।
‘‘सुनो…इस शहीद का पूरा नाम क्या था?’’ तभी माइक पर मंत्री जी की आवाज गूंजी। सबके सब अवाक् रह गए। दरअसल मंत्री जी संचालक से यह सवाल करते समय माइक पर हाथ रखना भूल गए थे।

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