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लघुकथाएँ - देश - संतोष सुपेकर
महँगी भूख

मम्मी भूख!’’ ‘‘बस दो मिनट!’’ टेलीविजन की विशाल दुकान की विशाल स्क्रीन पर नूडल्स का विज्ञापन चालू था कि बाहर से छिपकर निहारते दो फटेहाल बच्चों में से एक ने उसे देखकर मुँह बिचकाया।
‘‘क्या हुआ राधू?’’ देखकर बड़ा बच्चा पूछ बैठा।
‘‘ये अमीरों वाली भूख तो भोत चुभती है मेरे को! भोत मेंघी पड़ती है ऐसी भूख!’’ राधू का स्वर संजीदा हो उठा और एक हाथ स्वयंमेव अपने गाल पर चला गया, ‘‘एक दफा इसकी देखादेखी मैं भी घर जाके ऐसे ही अम्मा पे चिल्लाया था-मम्मी भूख!’’
‘‘तो?’’
‘‘तो क्या? अम्मा ने बदले में दो जोरदार लाफे (चांटे) मार के गाल सुजा दिया था मेरा, अब तक निसानी है।’’
‘‘हा, हा’’ दूसरा, ‘बच्चा हँसने लगा, ‘‘तो ये बोल नी कि इनकी (अमीरों की) भूख, भूख-भूख चिल्लाते ही पिलेट (प्लेट) में सजके आती है और अपण ऐसा करो तो करमजली गाल पे आती है।’’
सुनकर संजीदा राधू भी अब मुस्कुरा पड़ा।

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