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लघुकथाएँ - देश - रंजीत कुमार ठाकुर
सुंदरता

बड़ी व्रत का मेला और संध्याकालीन बेला। मैं पान की दुकान के सामने खड़ा होकर अपने साथियों की राह देख रहा था कि दृष्टि उस तरफ गई-कामाख्या-स्थान-मैदान की तरफ जाने का यह नया रास्ता खुल गया था। भीड़ अधिक हो तो कई नए रास्ते खुल ही जाते हैं। सड़क से कुछ दूरी पर एक फूस का घर था, जिसके करीब से नया रास्ता बना हुआ था।
रास्ता छोड़कर वह खड़ी थी। घूँघट लंबा था। गोद में बच्चा था-ढेढ़-दो साल का।
अचानक बच्चे ने घूँघट परे सरका दिया। बिजली की गति से उसने फिर घूँघट निकाल लिया। बच्चे ने घूँघट फिर सरकाया। इस पर घूँघट निकालने से पहले उसने आँख कड़ा करके बच्चे की तरफ देखा। मगर बेकार। विवश होकर उसे घूँघट छोटा करना पड़ा। यह उस बच्चे की माँ पर पहली जीत थी। दूर से भी ऐसा लगा, मानो बच्चे के होठों पर मुस्कराहट हो-माँ भी मुस्काई, एकदम संयमित-सी मुस्कान, मानो सिर्फ बच्चे के लिए हँसी हो। बच्चा प्रफुल्लित होकर मचलने लगा। माँ ने उसके नाक में अपनी नाक सटा दी फिर जाने क्या मंत्र फूँका-बच्चा शांत हो गया। अब उसका नन्हा-सा हाथ माँ के चेहरे पर था। यह लो उस नन्हें से हाथ में माँ का कान आ गया और अब कान की बाली।
माँ जो अब निश्चिंत-सी हो गई थी और किसी के आने की राह देख रही थी, असहज हो उठी। सावधानी से बच्चे के हाथ से बाली को मुक्त किया और डराने के लिए एक बार पुनः कठोर नेत्रों से उसकी तरफ देखने लगी।
नहीं माता! तेरा बच्चा डरपोक नहीं है। देखो तो फिर से बाली लेना चाहता है।
माँ झल्लाई। बच्चे का हाथ अपने बाँह से दबा दी।
बच्चा जानता था कब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना है। अब लगा वह रोने और माँ लगी उसे चुप करने। मुँह चूमकर कुछ कह भी रही थी। यही कह रही होगी न-‘मेरा राजा बेटा, प्यारा बेटा, चुप हो जा’ या फिर, ‘आने दो पापा को, बताती हूँ-बहुत बदमाश हो गया है। चुप हो जा-पापा बहुत डाँटेंगे।’
किंतु बच्चा चुप न हुआ। उलटे माँ को देखकर हुलस-हुलस कर रोने लगा। तब माँ ने उसके गालों को चूमा, होठों को सहलाया, फिर आँचल में छिपाकर स्तन से लगाया।
अरे, कृष्ण-कन्हैया, अब तो चुप हो जा। नहीं, तू भी तो जिद्दी ठहरा। देखो तो दूध पीने से इनकार कर दिया।
अब क्या करोगी मैया-सँभालो तो अपने लल्ले को।
माँ ने उसके चेहरे पर से आँचल हटा लिया। थोड़ी देर तक नटखट बच्चे को प्रसन्नचित्त देखती रही, फिर हार मान ली। अपना कान उसके आगे कर दिया। बच्चे ने हाथ बढ़ाकर बाली पकड़ ली, फिर खींचा।
…बच्चा बाली खींचता-माँ दर्द से ‘ऑ’ की-सी आवाज करती और बच्चा खिलखिलाकर हँस पड़ता। बड़े प्रयत्न से यह देखना संभव हो पा रहा था कि माँ के होंठों पर भी मुस्कुराहट थी।
…इतना शीतल, इतना आनंददायक मेले में कुछ और न था।

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