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लघुकथाएँ - देश - मनोज अबोध
दहेज

‘क्या हुआ…बहुत रिलैक्स लग रहे हो…क्या निधि के होनेवाली ससुराल में कुछ ज्यादा वैलकम हो गया…।’’ सरिता ने बनावटी ईर्ष्या का भाव व्यक्त करते हुए विनय से पूछा।
‘‘हाँ सरिता…वाकई रिलैक्स्ड हूँ…और कपूर साहब ने आवभगत भी खूब की…अपनी निधि तो लकी-चैंप है।’’
‘‘अब कुछ आगे भी बोलो…लेन-देन कितना फाइनल हुआ…।’’ सरिता ने सोफे पर बैठते हुए पूछा। तब तक निधि और छोटी बेटी अक्षिता भी ड्राइंगरूम में आ चुके थे। दरअसल, विनय ग्रेवाल अपनी बड़ी बेटी निधि की शादी की बात पक्की करने एकान्त कपूर के घर गए थे। लड़के-लड़की का एक दूसरे को पसन्द करना और दोनों परिवारों में शुरुआती बातचीत पहले ही हो चुकी थी। एक नज़र सभी के उत्सुक चेहरों पर डालकर विनय से कहना शुरू किया-
‘‘रीयली सरिता…कपूर फैमिली के बारे में जैसा सुना था, वे तो उससे भी बढ़कर हैं। कपूर साहब ने स्पष्ट कह दिया है कि उन्हें दान-दहेज के नाम पर एक पैसा भी नहीं चाहिए। बोले-ग्रेवाल साहब, आज के समय में बच्चों को हायर एजुकेशन दिलाना और कैरियर पर्सन बनाना कितना महँगा और बड़ा काम है, हम अच्छी तरह से जानते हैं। हमने निधि बिटिया को पसंद किया है, उसकी हायर एजुकेशन और नेचर देखकर…बाकी किसी भी तरह का दान-दहेज हमें नहीं चाहिए।… मैं तो देखता रह गया कपूर साहब को। मिसेज कपूर ने तो यहाँ तक कहा कि मैरिज फंक्शन में भी बहुत ताम-धाम की ज़रूरत नहीं…।’’
‘‘बट पापा…आय कान्ट एडजस्ट विद ऑल दिस…आय वॉन्ट एवरीथिंग माय ओन…।’’ ग्रेवाल दम्पती की प्रश्नवाचक निगाहें निधि पर थीं।
‘‘या…ह…कपूर फैमिली नहीं, मुझे अपनी शादी में दहेज चाहिए,…ज्वैलरी के अलावा…कार, आरओ, एसी, होम थियेटर, मेगाफ्रिज…सबकुछ…एक्सक्लुसिव और मेरी पसंद का…मैं भुक्खड़ों की तरह एक सूटकेस लेकर ससुराल नहीं जाने वाली…।’’
विनय और सरिता चुपचाप अपनी हाय-एजुकेटेड बेटी को देखते रह गए।

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