‘‘का रे हरिया आजऊ तैने एकई किरिया नराई। ससुर के नाती, रुपिया तौ तोय पूरे सौ चइयें, काम के लइयाँ गोड़ टूटि जात हैं।’’ मदन सिंह चाचाजी की क्रोध भरी आवाज सुनकर मेरे पैर ठिठक गए। देखा तो हरिया और उसकी पत्नी दोनों निराई करने के बाद चाचाजी से अपनी मजदूरी माँग रहे थे। मैं भी उसी तरफ चल दी। हरिया ने मक्का की फसल की एक क्यारी ही निराई थी और उसमें भी खरपतवार छोड़ दिया था ; किंतु उसकी पत्नी ने डेढ़ क्यारी से ज्यादा निराई थी और काम भी बहुत सफाई से किया था। चाचाजी की प्रशंसापूर्ण दृष्टि से अभिव्यक्त हो रहा था कि उन्हें भी हरिया की पत्नी का काम अच्छा लगा था। हरिया तो बीच-बीच में बैठकर बीड़ी पी लेता था ; किंतु उसकी पत्नी अनवरत अपना काम करती रहती थी। यही कारण था कि वह हरिया से कहीं ज्यादा और कहीं बेहतर काम करती थी। उसके द्वारा निराई गई साफ-सुथरी क्यारियाँ देखकर मुझे इस सत्य का अनुभव हो रहा था कि परिश्रम कहीं भी उत्कृष्टता ला सकता है ; फिर चाहे वो मक्के के खेत की क्यारियाँ ही क्यों न हों। साथ ही प्रसन्नता हो रही थी ये देखकर कि यह एक स्त्री का काम था। गर्वमिश्रित आश्चर्य हो रहा था भारतीय स्त्रियों की उद्यमशीलता पर। परंतु मेरे गुमान का किला धराशायी हो गया जब मैंने चाचाजी को मजदूरी के पैसे देते हुए देखा। हरिया को सौ रुपए मिले थे ; जबकि उसकी पत्नी को केवल सत्तर रुपये। उन दोनों के जाने के बाद मैंने चाचाजी से इस विषय में बात की तो उन्होंने कहा-‘‘लाली तू हमैं ज्ञान मति बाँटै। बैयरबानी कूँ आदिमी की बरब्बर मजूरी कहूँ सुनी है का। मोते कही तौ कही, काऊ और ते मति कहि दइयो नाय तो पंचायत तक बात और पौंचि जाएगी। सिगरौ गाम जि कहैगौ कै फलाने सिंग की छोरी अँगरेजी की माट्टन्नी का है गई, बड़े बूढ़ेन कूँ अकलि सिकावति है।’’
इक्कीसवीं सदी के भारत में भी स्त्री की ऐसी विवशता। उसकी हाड़-तोड़ मेहनत का ऐसा मूल्यांकन। मेरे महान देश का ये कड़वा यथार्थ न जाने कब बदलेगा।
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