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लघुकथाएँ - देश - कैलाश जायसवाल
पुल बोलते हैं
लम्बा और सूना प्लेटफार्म। बीनेंट के शेड्स से टकराती तिरछी घनी बूँदें। मध्यरात्रि के आलोक में पटरियों पर गिरती–उछलती और बिखरती बूँदों का अटूट क्रम। प्लेटफार्म की परिधि के परे गहरा अँधेरे में उभरते अनेक अनुमानित आकृतियों के अस्थिर आभास। प्लेटफार्म के ऊपर से गुजरता हुआ दूर तक दिखता ऊँचा पुल।
पुल, वर्षा और धूप, आकाश से बतियाता–सा। न जाने कितने लोग उसके ऊपर से और न जाने कितनी रेलें उसके नीचे से गुजर गई। वह कई सालों से यूँ ही खड़ा है।
आज अँधेरी वर्षा में ही घूमा–मैंने सोचा और प्लेटफार्म से निकलकर पुल पर चढ़ने लगा। एक बहुत ही तेज और ठंडे झोंके ने मेरा आलिंगन कर लिया और मैं अँधेरी वर्षा में निर्बाध घुस गया।
मुझे गिरते पानी के नैरंतर्य में नगर की सड़कों और सीमांतों पर घूमना बहुत अच्छा लगता है, बगैर छतरी या बरसाती के, बीच–बीच में गर्म चाय के दो–दो, तीन–तीन कप पीता रहता हूँ। अभी तक बरसते दिनों में ही घूमा हूँ। आज अँधेरी बरसाती रात के निर्जन में पुल पर भटकने की इच्छा दुर्दांत हो उठी थी। अब मैं पुल पर पहुँच गया हूँ । इस पुल पर एकदम अँधेरा क्यों है? शायद लाइट खराब हो गई है।
घुप्प अँधेरे में मैं सिर्फ़ वर्षा की ऊर्जा महसूस कर रहा हूँ , पाँवों के नीचे खलखलाती जलधाराएँ लुढ़क रही हैं। अनुमान से, आहिस्ते–आहिस्ते चलता हुआ मैं पुल के चक्कर लगाने लगा। सहसा चाय की याद आ गई, कहाँ मिलेगी? प्लेटफार्म का स्टाल भी बंद पड़ा था। पाँच बजे से पहले क्या मिलेगी, मैंने मन ही मन सोचा। अँधेरे पुल की छाती पर अँधेरे में चलते हुए मुझे लगा, कोई मुझे इस तरह पुल पर चक्कर लगाते देख ले तो वह क्या सोचेगा? वह शायद यही सोचेगा कि मैं पुल का संतरी हूँ। मुझे हँसी आ गई। उसे क्या पता कि मै। ‘इंजॉय’ के लिए घूम रहा हूँ । वर्षा और हवा की गति अभी भी वैसी ही थी। कहीं दूर से चार का गजर खड़का। अभी तो एक घंटा और है–मैंने सोचा। गजर की आवाज सारे परिवेश में से लपलपाती हुई गुजर गई। फिर मौन था यानी हवा और वर्षा की आवाजें थीं, पूर्ववत्। एक घंटे बाद ट्रेन आ जाएगी, स्टाल खुलेगा और मैं चाय के पूरे तीन कप पीकर,बर्थ पर जा लेटूँगा, आज की सुबह अच्छी ही गुजरेगी, खूब गहरी नींद आ जाएगी। इस वक्त पुल पर आने से दो काम हो गए। मुझे अपने यहाँ आने पर खुशी होने लगी।
कौन जानेगा कि आज रात मैं यहाँ घूमता, इस पुल की, इस अजनबी नगर की एक बरसती रात को ‘ब्लैक–डॉग’ पीता रहा और मुझे किसी ने भी नहीं देखा,कौन जानेगा? अभी आश्वस्त हो ही रहा था कि एक आवाज हवा से अलग, मेरे पास से, मुझे छूती हुई या हलके–से धकियाती हुई बूँदों पर सवार गुजर गई।
कौन है? कौन है? मैंने पूछना चाहा, चीखना चाहा, मगर आवाज गले से बाहर निकली ही नहीं। शायद बौछारों ने मुँह ही नहीं खुलने दिया।
हवा और वर्षा की गति अभी भी वैसी ही थी।
क्या पुल भी बोलता है?
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