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लघुकथाएँ - देश - राजकुमार निजात
उमंग, उड़ान और परिन्दे
आज उसका अठारहवाँ जन्म दिवस था। वह अपने मम्मी–पापा की इकलौती बेटी और भइया की इकलौती बहन थी। दीप उससे छोटा था और उड़ान दीप से बड़ी थी। वह तुतलाकर बड़ी मुश्किल से बोल पाती। चल भी नहीं पाती थी। उसे सहारा देकर चलाया जाता तो ज़रूर कुछ कदम चलती।
केक के सामने वह व्हीलचेअर पर बैठी थी। उसकी क्लास के सार बच्चे उसे शुभकामनाएँ देने के लिए बड़े उत्साह और उमंग से आए थे। उसने सालगिरह का केक काटा तो वह खुशी से भावुक हो गई। फिर वह अपने सभी मित्रों के बीच व्हीलचेयर पर बैठी–बैठी तालियाँ बजाती हुई पहुँच गई। उसकी एक सहेली, जो विकलांग नहीं थी, उसे शुभकामनाएँ देते हुए बोली, ‘‘तुम बहुत सुन्दर लग रही हो उड़ान।’’
उसने तुतलाते हुए कहा, ‘‘आज कम्प्यूटर पर मैंने तुम्हारा चित्र बनाया है उमंग। उस चित्र में तुम एक ऊँची पहाड़ी पर खड़ी हो और आसमान में उड़ रहे परिन्दों को देख रही हो।’’
उमंग ने अपने हाथों में थामी एक बड़ी तस्वीर उड़ान को भेंट करते हुए कहा, ‘‘यह एक संयोग ही है कि वही चित्र मैं तुम्हें इस सालगिरह पर भेंट करने आई हूँ । उस चित्र में मैं नहीं, तुम स्वयं हो।’’
उड़ान ने उमंग के बनाए चित्र को देखा तो वह विस्मित हो उठी। सचमुच उस चित्र में वह स्वयं ही थी। एक ऊँची पहाड़ी पर खड़ी परिन्दों को देखती हुई वह अपने आकाश की ऊँचाइयों को माप रही थी। वह स्वयं को देर तक एक दर्शक बनकर देखती रही और स्वयं को ही सार्थक करती रही।
 
 
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