सुदर्शन घर में पड़ी पुरानी अखबारों पुस्तकों का एक ढेर, कुछ काम न आन वाले डिब्बे तथा कुछ खाली बोतलों के बारे में सोच रहा था, उसके मन में आया, कोई कबाड़ी आ जाए तो इन्हें बेच दूँ। तभी गली में आवाज़ सुनाई दी, ‘‘अखबारें, पुरानी किताबें, पुराने डिब्बे बेच लो।’’
आवाज़ सुनते ही सुदर्शन को राहत सी मिली। उसने गली में से झाँककर उसे बुलाया और कुछ ही देर में उसके सम्मुख अखबारों,किताबों, डिब्बों तथा शीशियों का एक ढेर- सा लगा दिया।
कबाड़ी ने तोल–ताल कर हिसाब लगाया, कुल पन्द्रह रुपए पैंतीस पैसे। सुदर्शन को पन्द्रह रुपए देकर वह जेब में हाथ माने लगा। सुदर्शन ने कहा, ‘‘छोड़ो भाई,35 पैसों को रहने दो। चलो, इससे तुम्हारी एक रोटी का आटा तो आ ही जाएगा।’’ इतना कहकर वह कमरे के भीतर जाकर लेट गया।
कुछ देर में किसी ने दरवाजा खटखटाया। सुदर्शन ने खोला तो देखा, वही व्यक्ति सामने था।
‘‘क्या बात है, अभी तक गए नहीं क्या?’’ सुदर्शन ने पूछा।
‘‘नहीं गया तो था, एक रुपए के खुल्ले पैसे लेकर आया हूँ। यह लीजिए अपने पैंतीस पैसे।’’ उसने सुदर्शन की ओर पैसे बढ़ाते हुए कहा।
‘‘अरे मैंने तो छोड़ दिए थे भाई। तुम फिर ले आए।’’
अब उसके नथुने फूल गए थे। उसने पैसे सुदर्शन के सामने फैंकते हुए कहा, ‘‘बाबू जी! मैं कबाड़ी हूँ, कोई भिक्षुक नहीं।’’ |