निर्धारित समय से दस-पंद्रह मिनट ज्यादा देर तक इंतजार करने के बाद भी जब बस के आने की कोई सम्भावना नहीं दिखी तो वे पैदल ही चल पड़े. रात के सवा ग्यारह बजे चार किलोमीटर लम्बा निजर्न रास्ता तय करते उन दोनों सहयात्रियों की पहचान उतनी ही पुरानी थी, जितनी देर उन्होंने बस का इंतजार किया था. फिर भी अज्ञात चोर-उचक्कों के डर से वे साथ-साथ चल रहे थे.
अक्तूबर की गुलाबी ठंड की शुरुआत हो चुकी थी. कृष्णपक्ष की कोई रात होने के बावजूद अंधेरा इतना सघन नहीं था कि हाथ को हाथ भी न सूझ सके. प्रकृति की नीरवता को उनकी बातचीत भी कभी कभार ही भंग कर पाती थी, क्योंकि उनकी भाषाएं भिन्न थीं. एक था हिंदीभाषी स्थानीय निवासी, जबकि दूसरा दूर केरल प्रदेश का हट्टा-कट्टा नौजवान, जो काम के सिलसिले में नये बन रहे पावर हाउस में आया था. टूटी-फूटी हिंदी में उसने बताया कि इस जगह से वह ज्यादा परिचित नहीं है और एकाध बार ही इसके पहले आया है.
रास्ता निर्विघ्न बीता. स्थानीय निवासी का घर करीब आ चुका था. वह ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रहा था कि जेब में रखे मोबाइल और चौबीस सौ रुपयों पर रास्ते में कोई आंच नहीं आई. लेकिन परप्रांतीय सहयात्री को अभी एक किलोमीटर और आगे जाना था. वह इस बात से बेचैन दिखाई दे रहा था कि सारी दुकानें बंद हो चुकी हैं और अब खाने को कुछ नहीं मिल सकेगा. जब उसने प्यास लगी होने के बारे में स्वगत कुछ कहा तो स्थानीय निवासी चौकन्ना हो उठा. उसका घर नजदीक आ चुका था, फिर भी वह पीछे से आने वाले इक्का-दुक्का ट्रकों और दुपहिया सवारों को हाथ देकर रोकने की कोशिश करने लगा, ताकि सहयात्री को एक किलोमीटर और आगे जाने में परेशानी न हो. लेकिन समय अब निरापद नहीं रह गया था. शायद चोर-उचक्कों के डर से कोई भी वाहन अंधेरी रात बीच रास्ते में रुकने को तैयार नहीं हुआ.
घर पास आते ही गली में घुसते हुए स्थानीय यात्री ने चलते-चलते ही सहयात्री से विदा मांगी. परप्रांतीय का मिलाने के लिए उठा हाथ हवा में ही लहराकर रह गया. फिर भी चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए टूटी-फूटी हिंदी में उसने पूछा- ‘आपका नाम?’
‘शर्मा’ स्थानीय यात्री ने घर का गेट खोलते हुए जवाब दिया. पूरा नाम नहीं बताया जा सकता था. क्या पता वह चोर-उचक्का हो!
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