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लघुकथाएँ - देश - विष्णु प्रभाकर
मूक शिक्षण
जाड़ों का मौसम आ पहुँचा। फुलनाप्रसाद के पास एक भी गरम कोट नहीं था। उनकी पत्नी तारादेवी ने कई बार कहा, पर वे टाल गए। आखिर तारादेवी कब तक देखती रहती। एक दिन चुपचाप बाजार गई और ओवरकोट के लिए ऊनी कपड़ा खरीद लाई। मन ही मन सोच रही थी–कुछ भी क्यों न हो, आज वे जरूर उसकी प्रशंसा करेंगे। और प्रशंसा न भी करें, प्रसन्न तो होंगे ही। इसीलिए रात को जब फुलेनाप्रसाद घर आए, तो तारादेवी ने वह कपड़ा उन्हें देकर कहा, ‘‘सवेरे दर्जी को कोट सिलने दे आइए।’’
फुलेनाप्रसाद ने कुछ चौक कर पूछा, ‘‘मैं?’’
‘‘जी हाँ, आप।’’
‘‘किसके लिए?’
‘‘अपने लिए।’’
जैसे फूल मुरझा जाता है, कुछ इसी प्रकार मुस्कुराकर फुलेनाप्रसाद ने कहा, ‘‘मैं कोट सिलवाऊँ ?’’
यह सुनकर तारादेवी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘तो मैंने गलती की है?’’
‘‘अरे नहीं। यह किसने कहा?’’
‘‘अरे छोड़ो भी। आओ, चलो घूम आएँ। दर्जी की दुकार पर तो कल जाना है।’’
दोनों घूमने चले। घूमते–धूमते वे दोनों उधर पहुँचे, जिधर मजदूर रहते थे। वहाँ की भूमि सीली, दुर्गन्ध से भरी हुई तथा ऊँची–नीची थी। उस पर फोड़े–फुंसियों की तरह टूटे–फूटे घर फैले पड़े थे। हर जगह गरीबी और गन्दगी। मनुष्यों के शरीर पर वस्त्र नहीं थे, पेट में अन्न नहीं था। एक चौक में एक अलाव जल रहा था और उसके चारों ओर खुले आसमान के नीचे बहुत से नंग-धड़ग बच्चे और अधंनंगे बूढ़े लेटे हुए थे।
तारादेवी सिहर उठी। पूछा, ‘‘यह क्या है?’’
फुलेनाप्रसाद ने जवाब दिया, ‘‘अपनी आँखों से पूछो।’’
तारादेवी फिर कुछ नहीं बोली। चुपचाप घर लौट आई। अगले दिन वे सदा की तरह बाजार गई और कोट का कपड़ा साथ ले गई। उसी दुकान पर पहुँची ,जहाँ से कपड़ा खरीदा था। बोली, ‘‘इस ले लीजिए और इसके बदले में बने बनाए कपड़े बच्चों के लिए दे दीजिए।’’

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