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लघुकथाएँ - देश - जितेन्द्र सूद
क्या वे भी मिठाई बाँटेंगे ?
‘‘अरी, ओ सतवन्ती!’’ लाला धनीराम ने घर में घुसते ही आवाज़ लगाई।
‘‘क्या है जी?’’ सतवन्ती ने रसोई की चौखट पर खड़े–खड़े पूछा।
‘‘ले मिठाई खा!’’ धनीराम ने मिठाई का डिब्बा उसे देते हुए कहा।
‘‘ किस खुशी में मिठाई खिला रहे हो?’’ सतवन्ती ने प्रश्नात्मक दृष्टि से उसे देखा।
‘‘हमारे लिए आज का दिन बड़ा शुभ है। राक्षस मनीराम मर गया।’’ धनीराम का स्वर प्रसन्नता–भरा था।
सतवन्ती का हाथ काँप गया, मिठाई का डिब्बा गिरने को हुआ। उसे सँभालते हुए उसने मानो प्रश्न किया, ‘‘क्या कहा? भाई साहब चल बसे!’’
‘‘भाई साहब! अरी, कसाई साहिब कह। वो तो हमें बरबाद कर देने पर तुला था। कोई एक नहीं, तीन–तीन मुकदमे कर रखे हैं उसने हम पर। अच्छा हुआ मर गया।’’ धनीराम की आवाज़ और भी ऊँची हो गई थी।
सतवन्ती ने दुखी–भरी दृष्टि से पति को देखा। उसने कहना चाहा, आपने भी तो कोई कमी नहीं छोड़ी परन्तु हिम्मत नहीं पड़ी। तभी उसका बेटा कुबेर वहाँ आ गया। उसने रसोई में घुसते ही कहा, ‘‘अम्मा! बहुत भूख लगी है, कुछ खाने को दो।’’
सतवन्ती के बोलने से पहले ही धनीराम ने उसके हाथ से डिब्बा लेकर और उसका ढक्कन हटाकर बेटे के आगे करते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज तो तुम मिठाई खाओ।’’
उदास माँ को खुश पिता को देखकर कुबेर ने पूछा–‘‘आज किस खुशी में मिठाई खिला रहे हो पिताजी।’’
‘‘जिसने हमारा जीना दूभर कर रखा था, उसके मर जाने की खुशी में।’’ पिता की इस बात को सुनकर बरफी के टुकड़े को मुँह में ले जाते कुबेर रुक गया और बोला, ‘‘क्या मतलब?’’
धनीराम के बोलने से पहले ही सतवन्ती बोल पड़ी–‘‘तुम्हारे ताऊजी चल बसे बेटा।’’
कुबेर ने बरफी का टुकड़ा डिब्बे में ही रख दिया और दुख भरे शब्दों में पिता से कहा–‘‘हम में से किसी के मरने पर क्या वे लोग भी मिठाई बाँटेंगे पिताजी?’’

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