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लघुकथाएँ - देश - दिनेश त्यागी
बेटा
पुनिया चाची की नींद पड़ोस के घर से आ रही रोने की आवाज से खुली। उन्होंने सोचा, ‘‘मटरू का छोटा लौंडा बीमार चल रहा था, वोई ख्तम हो गया दीक्खे!’’.....और झटपट अपने पुआल केबिस्तर से निकलकर मटरू के घर पहुँची।
‘‘क्या होया री बऊ, बाल–बच्चे तो सब ठीक–ठाक हैं?’’
बहू ने सुबकते हुए कहा, ‘‘बालाकों कू कौन मरी खा रई है? यो छोट्टा वाला किो दिन से बीमार चल रया है, पैसों की वजै से दवाई बी ना लाई इसकी, पर फिर भी कुछ ना हौया इसे तो। इसै कुछ हो जाता तो कोई काम तो न रुकता, बस इाा होता....एक–दो–कम हो जाता अगले साल कू पूर्ति होजाती इसकी तो। पर अब तो....’’कहते–कहते रुलाई और तेज हो गई।
‘‘अरी कुछ बतावैगी बी हौया क्या?’’
‘‘हौया क्या चाची, हम तो बरबाद हो गए। उधर खेत पलेवा कर कै बोने कू तैयार पड़ी है, यह अच्छा–बिच्छा बैल जानै कैसे मर गया। अब लो तो एक मेरा एक तेरा मिल कै दोनां का काम खींच ई रये थे, अब कैसे होवैगी?’’
सुनते ही चाची को भी रोना आ गया। लगा, जैसे उसका बेटा मर गया है।
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