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लघुकथाएँ - देश -अनिता ललित
सामंजस्य
महिला-दिवस का आयोजन था। हॉल महिलाओं से खचाखच भरा हुआ था। फुसफुसाहट के मधुर स्वर बीच-बीच में गूँज उठते थे और पूरे माहौल में इत्र की मिली-जुली सुगंध घुली हुई थी। एक महिला स्टेज पर भाषण दे रही थी-"हम महिलाएँ अब घर में सजाने वाली वस्तु नहीं रह गई हैं। हमारा अपना एक अलग वजूद है, अपना ध्येय है, अपनी ज़रूरतें है … " हॉल में बैठी हुई कुछ महिलाएँ दूर बैठी महिलाओं से अभिवादन का आदान-प्रदान कर रहीं थीं , कुछ दूसरों के वस्त्रों का आकलन कर रहीं थीं। बीच-बीच में तालियाँ भी बजा देतीं थीं।
इतने में श्रीमती शर्मा ने श्रीमती सिन्हा से कहा, "क्या हुआ मिसेज़ सिन्हा, आज आप आने में लेट हो गईं ? सिन्हा साहब की तबियत अब कैसी है?"
श्रीमती सिन्हा ने हलके से मुस्कुरा कर कहा, "सिन्हा जी की तबियत तो अब पहले से बेहतर है। देर तो बहू के ऑफिस के कारण हुई। आज शीनू की अपने बॉस के साथ मीटिंग थी। "
श्रीमती शर्मा के आँखों में एक ख़ुराफ़ाती जिज्ञासा जाग उठी, चेहरे पर आश्चर्य के भाव लाते हुए तुरंत पूछ बैठीं, "अच्छा! फिर…" !
"फिर क्या! शीनू बेचारी संकोच में थी , परेशान हो रही थी कि क्या करे, कैसे मना करे अपने बॉस को ! तो मैंने ही उससे कहा कि वह चिंता न करे ! ! अपनी मीटिंग ख़त्म करके आ जाए, उसके बाद मैं इस फंक्शन में आ जाऊँगी। जब वह घर लौटी तभी मैं आई "- श्रीमती सिन्हा ने कहा! यह बताते समय उनके चेहरे पर एक आत्मसंतुष्टि का भाव, एक सुक़ून ,एक तेज था और श्रीमती शर्मा के चेहरे पर एक बनावटी, हारी हुई, खिसियाई हुई शर्मिंदगी-भरी हँसी थी। स्टेज पर महिला का भाषण अंतिम चरण पर था, "जिस दिन हम महिलाएँ, महिलाओं का दर्द समझ लेंगीं ,वही दिन हमारी उन्नति की ओर हमारा पहला क़दम होगा…"
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