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लघुकथाएँ - देश - जगदीश कश्यप
सरस्वतीपुत्र
‘‘क्या तुम मेरी लड़की को सुखी रख सकोगे?’’
‘‘यह बात आप अपनी लड़की से पूछो।’’ और लेखक ने मुरझाए चेहरे पर की धूल–भरी दाढ़ी में हाथ फेरा।
‘‘मैं तुमसे अत्यन्त घृणा करता हूँ, प्रेमिका के पापा ने उसे घूरते हुए कहा। उसके बटन टूटे कुर्ते से सीने के बाहर झाँक रहे बालों को देख, वह और भी उबल पड़ा, ‘‘तुम लीचड़ आदमी, ाादीवाली बात सोच कैसे सके!’’
‘‘क्या यही कहने के लिए बुलाया था आपने मुझे?’’
इतने में प्रेमिका दो कप चाय लाई और मेज पर रखकर मुड़ चली। जाते–जाते उसने मुस्कराते हुए कनखियों से प्रेमी को घूरा लेकिन वह मुँह नीचा किए बैठा रहा जबकि प्रेमिका का पापा तीव्र गुस्से से उस फटेहाल युवा कवि को घूर रहा था, गोया कि उसे कच्चा चबा जाएगा।
‘‘अच्छा लो चाय उठाओ।’’ पता नहीं क्यों सुन्दर लड़की का बाप ठण्डा पड़ गया था। अपमानित युवा लेखक ने चाय का कप उठाया और धीरे–धीरे सिप करने लगा। इसी बीच जवान लड़की के बाप ने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय ले लिये थे,अत: वह अचानक बोल पड़ा, ‘‘कहो तो तुम्हारी सर्विस के लिए ट्राई करूँ?’’ इस पर पोस्ट ग्रेजुएट बेरोजगार चौंक पड़ा।
‘‘लेकिन तुम्हें मेरी लड़की को भूलना होगा।’’ शर्तवाली बात पर कवि चुप रह गया और नमस्कार करके चला आया।
उसके जाते ही बी.ए. में पढ़ रही लड़की का पापा बराबर सोच रहा था कि आखिर उस कमजोर युवक में ऐसा क्या था कि उसकी सुन्दर लड़की ने जहर खाने की धमकी दे दी थी। जाहिर था कि वह उसकी कलम पर मर मिटी थी।
‘‘ हूँ’’, लड़की के बाप ने खुद से कहा–‘‘भगवान् भी कैसे–कैसे लीचड़ों को लिखने की ताकत दे देता है!’’
उधर लेखक सारी रात खुद को समझाता रहा कि वह शर्तवाली नौकरी कभी स्वीकार नहीं करेगा और आत्म–निर्भर होने तक उस लड़की से शादी नहीं करेगा।

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