पूरे घर में आज उत्साह का वातावरण है।
रमेश ने आॅफिस से लौटते ही अपनी पहली तनख्वाह पिताजी के चरणों में रख दी थी। नीले रंग के कितने ही सौ–सौ के नोट–एक साथ्! रिटायर्ड पिता मन–ही–मन ईश्वर का धन्यवाद कर गद्गद् हो उठे थे।
रात्रि के भोजन में विशेष पकवान बनाए गए। माँ ने भगवान् को भोग लगाया। फिर सभी खाने बैठ गए। कौर चबाते हुए रमेश ने कहा, ‘‘पिताजी, आप देखना, जल्दी ही मैं घर का नक्शा बदल दूँगा।’’
‘‘कैसे भइया?’’ आश्चर्य से आँखें फैलाए छोटी बहन ने पूछा।
‘‘अरे दीदी! तुम्हारा भाई इन्जीनियर है और वह भी सिविल.....लाखों के कांट्रैक्टर्स हैं! बड़े–बड़े ठेकेदार तलुवे चाटते हैं आकर; लेकिन मैं किसी साले को घास नहीं डालता।’’
‘‘मुझे तुम पर नाज है बेटे! मेहनत और ईमानदारी से काम किए जाओ बस्स!’’ पिताजी ने सगर्व कहते हुए किसी पारखी–सी दृष्टि से उसे घूरा।
रात गए देर बाद अपने बराबरवाले कमरे में हो रही फुसफुसाहट सुनकर रमेश के कान जमकर रह गए। पिताजी कह रहे थे, ‘‘रमेश की माँ ! अब जल्दी ही हमारे दलिदर दूर हो जाएँगे।...रमेश की पढ़ाई के दौरान ठेकेदारों से वास्ता पड़ता है उसका।’’
‘‘लेकिन वो तो किसी को भी घास नहीं डालता।’’ माँ ने रुआँसे स्वर में कहा।
‘‘यही तो मैं सोच रहा हूँ।’’ कहते–कहते पिता की आवाज बुझ–सी गई थी।
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