आजादी के प्रतिमूर्ति पूज्य बापू की एक शीशामढ़ी तसवीर पिताजी ने घर में टाँग रखी थी। घर में दो खिड़कियाँ थीं। दोनों खिड़कियों के बीच बहुत ही मौजूँ तौर से वह तसवीर टँगी थी। उस तसवीर के लिए घर में शायद उससे अच्छी जगह कोई और नहीं थी। पिताजी अपने पूजा–पाठ से निवृा होकर बापू की तसवीर को हाथ जोड़कर कुछ देर देखते रहते और फिर काम पर निकल जाते। बापू के प्रति मेरी भी अगाध श्रद्धा थी। उनकी जयन्ती और पुण्य–तिथि के अवसर पर गद्गद् भाव से मैं भी माल्यार्पण करता।
लगभग तीस वर्षों से यह परम्परा चलती आ रही थी। एक दिन पिताजी बस की भीड़ में ठीक से अन्दर चढ़ नहीं सके या जाने कैसे, गिर गए। श्राद्ध–कर्म के बाद माँ ने कहा, उनकी एक तसवीर घर में लगा दो। पिताजी मेरे गुरु, मातु–पिता और स्वामी–सखा सब थे। मेरी ही नहीं, बहुत लोगों की श्रद्धा उनके प्रति थी। तसवीर मढ़कर आ गई। लगाई कहाँ जाए? जहाँ बापू की तसवीर टँगी थी, उससे ज्यादा मौजूँ जगह दिख नहीं रही थी। बहुत ऊहापोह के बाद माँ की भावनाओं की रक्षा करते हुए बापू की तसवीर वहाँ से हटाकर पिताजी की तसवीर वहाँ टाँग दी गई। माँ अपने पूजा–पाठ के बाद आकर पिताजी की तसवीर के आगे कुछ देर खड़ी होतीं और फिर न जाने किन स्मृतियों कीभावना के अतिरेक में आकर आँखें पोंछती अन्दर चली जातीं, जहाँ मेरी पत्नी अपेन लड़के को स्कूल जाने के लिए तैयार कर रही होती।
फिर वही क्रम शुरू हुआ। प्रत्येक बरसी के दिन पिताजी की तसवीर पर टँगी गोटेवाली माला बदली जाती। फूलों का माल्यार्पण भी होता। पिताजी की बहुत सारी यादें मन में कौंधती। यह सिलसिला कोई दस साल तक चला। एक दिन क्या देखता हूँ कि पिताजी की तसवीर की जगह माधुरी दीक्षित की तसवीर लगी है। पत्नी ने बतलाया, ‘‘मन्नू ने लगाई है।’’
मैंने एक तसवीर खिंचवाई थी। इन्लार्ज कराकर यत्न से रख दी थी कि जब मैं नहीं रहूँगा, तो मन्नू....
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