महाकाव्य का स्थान कालांतर में उपन्यास को मिला। बाद में कहानी साहित्य की केन्द्रीय विधा बनी। बड़े का बड़प्पन फिर तिरोहित होने लगा। क्षणिका उपन्यासिका और लघुकथा भी साहित्य की स्वीकृत विधाएँ बन गईं। लघुता की सुन्दरता,लघुता की सुविधा और प्रभुतापर लोग सोचने–विचारने लगे। लघुकथा पश्चिम की देन है या भारत की मिट्टी की चीज है। इस प्रकार के तर्क–वितर्क कदापि समाप्त नहीं होंगे। व्यावसायिक और अनियतकालीन पत्रिकाओं के आविर्भाव से साहित्य की गतिविधियाँ बदलने लगीं। अवैतनिक संपादकों की समर्पित मनोवृत्ति सराहनीय थी। वे नवीनता की तलाश में थे, नये लेखकों की तलाश, नये भावों की तलाश, नये शिल्प की तलाश और नई विधाओं की तलाश में डूब गए थे और इस तलाश में लघुकथा की विधा उन्हें अच्छी रोचक औश्र प्रभुतापूर्ण लगी।
1950 में मलयालम में ‘नवसाहिती’ नामक मिनी पत्रिका प्रकाशित हुई। ‘गोपुरम’, ‘समीक्षा’ जैसी पत्रिकाओं का आविर्भाव भी एक महत्वपूर्ण घटना थी। व्यावसायिक के बजाय साहित्यिक रचनाओं की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना इनका मुख्य ध्येय था लेकिन आज की बहुत सी पत्रिकाएँ आकार नहीं प्रकार में लघुता को प्रोत्साहन दे रही है। अन्तर्देशीयपत्र और पोस्टकार्ड पर भी पत्रिकाएं निकलती हैं। सातवें दशक में तो यह एक नई प्रवृत्ति ही बन गई थी। वे कैपस्यूल रचनाओं का ही प्रकाशन करने लगीं। ‘गीतम’, ‘सुलेखा’, ‘स्पन्दनम’, ‘कलरी’, ‘अमर्षम’, ‘उण्मा’, ‘मषा’, ‘इन्नु’, ‘प्रिय सुन्न’, ‘साक्षी’, ‘आलकूम’ आदि मलयालम की प्रमुख लघु पत्रिकाएँ हैं।
लघु पत्रिकाओं ने लघुकथा को विशेष महत्व दिया। कुछ लघुपत्रिकाओं के विशेषांक आए। ‘इन्नु’, ‘चिल्ला’, ‘उण्मा’ के विशेषांक उल्लेखनीय है। पत्रिकाओं ने लघुकथा प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की। युवकों तथा विद्यार्थियों की रुचि इसमें बढ़ने लगी। स्कूल और कालेज की पत्रिकाओं ने भी छात्रों की लघुकथाओं को यथेष्ट महत्व दिया।
वैकम मुहम्मद बशीर, तकषी,एम0टी0 वासुदेवन नायर, कुज्जब्दुल्ला, सी0राधाकृष्णन, पो0वत्सला और वैशाखन की कुछ लघुकथाएँ काफी चर्चित हुई। टी0 पद्मनामन इस धारा से अलग रहे। ‘मिनी कथाएं’ शीर्षक से एक लघुकथा संकलन डॉ0पुनत्तिल कुज्जब्दुल्ला ने प्रकाशित किया। लघुकथा–साहित्य के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। सत्तर के दशक में और भी कई युवा कहानीकार लघुकथाएँ लिखने लगे। परन्तु एक अलग संकलन निकालने का साहस सिर्फ़ पी0 के0 पारक्कड़वु ने किया। ‘मौनलिण्डे निलविलि’ (सन्नाटे का चीत्कार) उनकी लघुकथाओं का बहुचर्चित और महत्त्वपूर्ण संकलन है।
सामान्यत: लघुकथाएँ सिर्फ़ मिनी पत्रिकाओं की ही विधा के रूप में रहती हैं। पुस्तकाकार पानेवाली लघुकथाएँ मलयालम में बहुत कम है। समीक्षकों का ध्यान भी इस विधा पर कम ही पड़ा है। लघुकथा की कसौटी और लक्षणों का निर्धारण मलयालम में अभी नहीं हुआ है।
क्या सिर्फ़ आकार की लघुता की कसौटी है। लघुता की भी अपनी एक समग्रता होती है। फिर भी अधिकांश लघुकथाएँ चुटकले के रूप में लिखी जाती है। कुछ लघुकथाएँ यह धारणा फैलाती है कि केवल व्यंग्यात्मक चित्रण करना ही लघुकथा का धर्म है। मलयालम की अधिकतर लघुकथाएँ सामाजिक व्यंग्य पर टिकी है। ‘चिल्ला’ के लघुकथा विशेषांक (जुलाई–अगस्त 1994 ) में लघुकथा के बारे में श्री बालचन्द्रन वटक्केलु ने एक विस्तृत लेख लिखा है। उधर उन्होंने यह राय प्रकट की है कि मलयालम में लघुकथा की विधा एक दृढ़ स्थिति प्राप्त नहीं कर सकी है। आज की स्थिति में यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि कहानी को हटाकर लघुकथा को साहित्य की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है। वह महज एक छोटा टुकड़ा नजर आती है। एक कथा को एक शब्द में सीमित करने से अधिक दुष्कर कोई काम नहीं है। सिर्फ़ शब्दों को नहीं, यहाँ तक कि एक अर्ध विराम को भी जुबान दे पाने का कौशल लघुकथा लेखक में होना चाहिए। तभी वह कामयाब लघुकथाएँ दे पाएगा। वह ध्वनि का एक दूसरा इतिहास बनाएगा। संवेदन का नया विस्तार बनाएगा। लघुकथा अनंत संभावनाओं की विधा है। सिर्फ़ जीवन की प्रारंभिक स्थिति में उसका प्रवेश हुआ है। कदाचित् आज की तमाम सीमाओं का मुकाबला करके वह नवीन रूप अर्जित करने की ओर अग्रसर है। वह नया साहित्यिक रूप अर्जित करेगी और तब समकालीन साहित्यिक चर्चाओं में उसका अवमूल्यन कर पाना आसान नहीं होगा। उस स्थिति में आलोचक नई चुनौतियों का सामना करने लगेगा।
‘उण्मा’ पत्रिका द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता (1994) की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए जी0 मोहन प्रसाद ने अपनी राय यों लिखी है–पैनी छेनी के सृजन के लिए बड़ी एकाग्रता और कलात्मक संयम आवश्यक है–पैनी छेनी के समान, बिजली की कड़क के समान, ध्यान–मुद्रा के समान, मौन वेदना के समान वह सहृदय के अन्तर में प्रविष्ट होनी चाहिए। अन्तरात्मा से उभरती रचनाएँ ही इस धर्म का पालन कर सकेंगी।
हल्का मनोरंजन और नितांत–व्यंग्य लघुकथा का साध्य न बनें। मानवीय जीवन के भिन्न मुहू्र्तों और मनोवृत्तियों से आज उसका संबंध जुड़ना आवश्यक है। केवल लघुपत्रिकाओं की गोद की सन्तान के रूप में उसे हमेशा रखना भी उचित नहीं है। अनुभवी कहानीकारों की भावना और प्रतिभा भी आज इस ओर मुड़ी है। इसमें हम आशा के अंकुर देख सकते हैं।