हिंदी लघुकथा के प्रचार–प्रसार में अपने लेखन द्वारा पवन ार्मा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पवन शर्मा उन थोड़े–से सशक्त लघुकथा लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने इस विधा को समझकर, फिर इसके लिए अपनी लेखनी का सफल प्रयोग किया है। तथ्य यह है कि वास्तव में वे ही लेखक इस विधा को जीवंत बनाने में सहायक हुए हैं, जिन्होंने रचनात्मक स्तर पर अत्यंत स्तरीय लघुकथाओं को जन्म दिया है। पवन शर्मा उनमें से एक हैं। उनकी लघुकथाएं यद्यपि अनेक लघुकथा–संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं, किंतु 1990 में प्रकाशित पहले लघुकथा–संग्रह ‘अपने–अपने दायरे’ से इनकी वास्तविक पहचान बनी। इसमें 55 लघुकथाएं संग्रहीत हैं, जिनमें से अधिकतर पहले ही पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी इन रचनाओं का रचनाकाल मार्च, 1983 से अक्टूबर, 1986 तक का है। संग्रह की अधिकांश लघुकथाएं पारिवारिक परिवेश को समेटे हुए हैं। आज महाजनी सभ्यता का बोलबाला है, इसलिए बच्चे माँ–बा पके स्थान पर पैसे को अधिक महत्व देने लगे हैं। भौतिकवाद के प्रभाव के कारण बच्चों में स्वार्थपरता घर कर गई है,इसलिए वे माँ–बाप की अवहेलना करने लगे हैं। कुछ इस प्रकार के कथ्यों को लेकर पवन शर्मा ने ‘टूटने पर’,‘घर’, ‘मोह’, ‘पहली बार’, ‘सहारे’, ‘उतरा हुआ कोट’, ‘विघटन’, ‘भंग होता अहसास’, ‘यह पारी ही तो है’ आदि लघुकथाएं रची है। कई बार मजबूरियों के कारण भी पारिवारिक संबंध टूटने लगते हैं। ‘अपने लोग’ ‘खुशी’, ‘घर’,‘लाचारी’, ‘उपयोगिता’, ‘धीरे–धीरे’ ऐसे ही उद्देश्य लेकर चली हैं।
पवन शर्मा की बहुत–सी लघुथाएं यथार्थ के धरातल पर चली हैं। ‘तेज रोशनी’, ‘जुबान’, ‘विवशता’, ‘रिश्ता’, ‘लाचारी’, ‘उपयोगिता’, ‘अपने लोग’, ‘मजबूरी’, ‘यथार्थ’, ‘सहारे’, ‘आलंबन’ आदि लघुकथाएं यथार्थ की तेज धूप को सहती हैं। संवेदना के स्तर पर लिखी गई लघुकथाएं जहाँ पाठक पर अत्यधिक प्रभाव डालती हैं, वहाँ स्वयं भी अमरत्व की भागीदार होती हैं। ‘अपनों के लिए’, पाठक को भीतर तक हिला देती हैं। आजकल लघुकथाओं में आक्रोश को बहुत महत्व दिया है। आक्रोश आदि लघुकथाएं इसी भाव को व्यक्त करती हैं।
पवन शर्मा की सबसे बड़ी खूबी है कि वे लघुकथा के शिल्प विधान को अच्छी तरह पहचानते हैं। ‘अपनो के लिए’, ‘एडजस्टमेंट’, ‘यथार्थ’, ‘टूटने पर’, ‘षडयंत्र’, ‘लंगड़ा’, ‘मोह’, ‘पहली बार’,‘तेज रोशनी’, ‘विभाजन’, ‘सहारे’ आदि लघुकथाओं के अंत पाठक को भीतर तक झकझोर डालते हैं। लघुकथाओं के शीर्षक सरल एवं लघु हैं। कथोपकथनों में स्वाभाविकता परिलक्षित होती है। ‘तेज रोशनी’ लघुकथा में संवादों का सघा प्रयोग किया गया है। लेखक ने बिंदुओं की ओर ध्यान देकर शैली की दृष्टि से लघुकथाओं के सौंदर्य में बढ़ोतरी की है। ‘टूटने पर’, ‘हाथ में’, ‘लाचारी’, ‘मोह’, ‘जुबान’,‘गुलाम’ आदि लघुकथाएं पात्रानुकूल भाषा को लिए हुए हैं।
‘लंगड़ा’, ‘मजबूरी’, ‘खुशी’, ‘षड्यंत्र’, ‘लाचारी’, ‘मोह’ इस संग्रह की अत्यंत सशक्त लघुकथाएं बन पड़ी हैं। अंत में परिचर्चा भाग है। यद्यपि इसके द्वारा इस विधा के कुछ पहलुओं पर विभिन्न समीक्षकाकें के विचारों से अवगत कराया गया है, किन्तु संग्रह से इस प्रकार की साहित्यिक सामग्री का मेल नहीं बैठता। अच्छा होता, अगर पवन ार्मा परिचर्चा को इसमें स्थान न देते। इस संग्रह की लघुकथाओं के शीर्षक जहाँ पर आकर्षक, लघु एवं कथानक के अनुरूप हैं, वहाँ पर कई लगभग एक जैसे होने के कारण दोहराव की स्थिति तक पहुँच गए हैं। जैसे अपनो के लिए, अपने लोग, अपने पराए; इसी प्रकार सपना, उनके सपने और रिश्ता, रिश्ते–नाते; ये सभी लगभग एक–दूसरे से मिलते–जुलते हैं। इसी प्रकार कथ्य की दृष्टि से नौकरी और शादी को लेकर इच्छा,यथार्थ, मजबूरी में लगभग एक जैसे रूप को बार–बार दोहराया गया है। फिर भी पवन ार्मा ने इस संग्रह द्वारा लघुकथा का मान बढ़ाया है।
‘अपने–अपने दायरे’ के बाद आए ‘जंग लगी कीलें’ में पवन की 45 लघुकथाएं शामिल हैं, जिनमें से अधिकतर पारिवारिक परिवेश को लिए हुए हैं। कुछ लघुकथाएं परिवार के दायरे से हटकर भी लिखी गई हैं। दूसरे प्रकार की लघुकथाओं में ‘अंग्रेजियत’, ‘शिक्षा’,‘स्कूल–कथा’, ‘शीत’, ‘धर्म–जात’, ‘चीख’, ‘सहमे हुए चेहरे’ आदि रखा जा सकता है, जिनमें शिक्षा जगत् के पतन, छूआछूत की कुरीति तथा शोषक का शोषित के प्रति अत्याचार पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुत: पवन शर्मा पारिवारिक लघुकथाओं के लघुकथा लेखक हैं। अत: इनकी लघुकथाओं के पात्र माँ,बाप, भाई, बहन, चाचा, जेठ, देवर आदि तो हैं ही, इससे परे के अरिश्तेदारों को भी पवन शर्मा ने रिश्तों की डोर में बांधने की सफल कोशिश की है। इन लघुकथाओं में किसी सीमा तक घुटन,टूटने व बिछुड़न को ही प्रश्रय दिया गया है। पारिवारिक जीवन की विसंगतियों का सफल अंकन करने में लेखक सक्षम हुआ है। अधिकतर ऐसी लघुकथाएं निम्न–मध्य वर्ग को लेकर लिखी गई हैं।
पवन शर्मा अपनी लघुकथाओं का प्रारंभ अधिकतर दो तरह से करते हैं। वे या तो वर्णनात्मक शैली से प्रारंभ कर फिर कथोपकथन शैली पर उतर आते हैं या फिर सारी लघुकथा को ही संवाद–शैली से रंग देते हैं। पहले प्रकार की लघुकथाओं में ‘शोर’, ‘गलत पकड़’, ‘इनका–उनका दुख’, ‘परछाइयां’, ‘जेबकतरे’ को तथा दूसरी प्रकार में ‘दिशाहीन’ और ‘स्तर’ आदि को रखा जा सकता है। पवन ार्मा का झुकाव संवाद या कथोपकथन शैली के प्रति विशेष है, जिसके कारण इन लघुकथाओं में प्रवाहमयता आ गई है, जो पाठक के मस्तिष्क पर एक विशेष प्रभाव डालती हैं। इसी संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि संवादों का प्रयोग करते–करते वे नाटककार की भांति एक विशेष निर्देश का भी प्रयोग करते हैं, जिससे उस समय की स्थिति का स्पष्टीकरण भी हो जाता है।
हिंदी लघुकथा ने यथार्थ से संवेदना तक की यात्रा तय कर ली है। इस संग्रह में पवन शर्मा की अधिकतर लघुकथाओं का प्रणयन यथार्थ की भित्ति पर ही हुआ है, किंतु ‘बूढ़ी आँखें तथा सूनी सड़क’ दो ऐसी लघुकथाएं हैं, जो संवेदनात्मक स्तर पर पाठक के हृदय को झकझोरने की क्षमता रखती हैं।
लघुकथा में अंत का बहुत अधिक महत्व होता है। पवन शर्मा अपनी लघुकथाओं के अंत तीन प्रकार के होते हैं। इन लघुकथाओं में या तो अंत स्वाभाविक हुआ है या फिर प्रश्न अलंकार से सजकर, अथवा ‘उसे लगा’ या ‘मुझे लगा’ आदि उपवाक्यों की सहायता से। पहले प्रकार में ‘अंग्रेजियत’, ‘पता नहीं क्यों’, ‘निर्णय’, ‘घिनौना चेहरा’, ‘नींव’, ‘तथा तीसरे प्रकार में ‘आतंक’, ‘पैबंद’, ‘दंश’ आदि लघुकथाओं को रखा जा सकता है। पवन शर्मा ने सरल तथा पात्रानुकूल भाषा में इन लघुकथाओं की रचना की है। यह इस लेखक और लघुकथा विधा दोनों के लिए शुभ संकेत है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पवन शर्मा ने ‘जंग लगी कीलें’ संग्रह के द्वारा पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर उन कुरीतियों एवं विसंगतियोंरूपी जंग लगी कीलों का वर्णन किया है, जिनके चुभने से व्यक्ति को गैंगरीन हो सकती है और शरीर में विष फैलने से मृत्यु भी हो सकती है।