हिंदी कथा और पत्रकारिता में बहुत जाना–पहचाना नाम है : महेश दर्पण। उनकी लघुकथाओं का संग्रह छपा है–‘मिट्टी की औलाद।’ संग्रह के शीर्षक से लगता है कि रचनाओं का अंतर्देश अपनी जमीन से जुड़े रहने के आग्रह पर टिका हुआ है। यह अकारण भी नहीं है, क्योंकि महेश दर्पण का लेखन गहरी और गंभीर फसल देनेवाली जमीन से ताल्लुक रखता है। वह ऊसर और बंजर प्रदेश को भी सरसब्ज करने के उद्यम की ओर अग्रसर नजर आता है। ऐसे में ‘मिट्टी की औलाद’ के मूल्यांकन के परिप्रेक्ष्य में दो फुट नीचे और धँसकर देखना होगा। यहाँ इन लघुकथाओं के साथ छोटा–सा सवाल भी जुड़ जाता है। सवाल यह है कि इन लघुरचनाओं को ‘लघुकथाएँ क्यों कहना चाहते हैं महेश दर्पण, जबकि आजकल लेखक अपनी हर छोटी रचना को, यदि उसमें कथातत्त्व है तो लघुकथा कहने पर आमादा हैं। यहाँ लेखक की अपनी सूझ और दृष्टि तो नजर आती ही है, लघुकथा के विवादित मसले पर तटस्थ बने रहने का भाव भी दृष्टिमान होता है। कथाकार सुरेश उनियाल भी विधा के संकट से वाकिफ हैं और सँभलकर टिप्पणी करते हैं। वे लिखते हैं : ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इन्हें किस नाम से पुकारूँ? फिलहाल मैं इन्हें लघुरचनाओं के नाम से ही पुकारूँगा। यह सिर्फ़ अपनी सुविधा के लिए कह रहा हूँ और पाठकों से मेरा आग्रह है कि इसे किसी तरह का नामकरण न माना जाए।’
‘मिट्टी की औलाद’ की रचनाओं में लघुकथा, लघुकहानी और छोटी कहानी के आदि के बीच क्या कोई सूक्ष्म अंतर है? यह जानने की अपेक्षा यदि किताब की रचनाओं से टकराया जाए तो शायद ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि रचनाओं के विश्लेषण के बगैर यह समझ पाना मुश्किल होगा कि ‘नाम के संकट’ से बचने की क्या सार्थकता हो सकती है। वैसे कोई भी पाठक इन लघुकथाओं को अपने ज्ञान और समझ की दृष्टि से नाम देने के लिए स्वतंत्र है। ‘मिट्टी की औलाद’ की लघुकथाएँ लेखक के अनुभवों की सूक्ष्म और गहरी प्रतीति कराती हैं। संवेद्य ज्ञान की पारदर्शी चेतना में लिपटी, गुंथी और कहीं–कहीं पर लगभग डूबी इन रचनाओं में जीवन का स्पंदन अपने भीतर कहीं झंकार पैदा करता है। उदाहरण के लिए अनेक लघुरचनाएँ मौजूद हैं। ‘खोया हुआ बच्चा’, ऊबे हुए सुखी’, ‘एहसास’, ‘दिनांत’, ‘बसंत’, ‘बच्चा’, ‘काम’, ‘हादसा’, ‘घाव’, ‘जूता’, ‘मिट्टी की औलाद’, ‘अच्छे दिन बुरे दिन’ और ‘बच्चे की खुशी’ आदि ऐसी लघुकथाएँ हैं, जो जिंदगी के शून्य को भरती हैं। और इन्हें पढ़ते हुए यह लगने लगता है कि आदमी के रिश्तों में पड़ी हुई अनेक दरारें, अनेक कटाव सहसा भर–से गए हैं। मानव–मूल्यों को बौना करनेवाली स्थितियों की काट में यह लघुकथाएँ बेहद कारगर साबित होती है। कुछ छोटी रचनाओं को वाकई में लेखक की काव्यात्मक अनुभूतियों की उत्कृष्ट और उदात्त अभिव्यक्ति के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। जैसे ‘दिनांत’ एवं ‘बसंत’ जैसी रचनाएँ।
‘मिट्टी की औलाद’ की कथाओं को जीवन के नाटकीय, अभिजात, कृत्रिम और लगभग ‘गढ़े हुए शाब्दों की भाषा’ के खिलाफ खड़े हुए देखा जा सकता है। रचनाओं का यह सीधा प्रतिरोध लेखन की परपंरा एवं सांस्कृतिक त्वरा का अभिसूचक है, जिसे महेश दर्पण जीवन की सहजता के अधिक निकट लाकर खड़ा करते हैं। वैसे इन रचनाओं को पढ़ते हुए बड़ी आसानी से गद्गद हुआ जा सकता है, पर लेखक इस रस–निष्पत्ति में ज्यादा देर तक रहने नहीं देता। वह पाठक को उसके इस गद्गदेपन से जल्द ही बाहर निकालकर जीवन के यथार्थ की खुरदरी जमीन पर खड़ा कर देता है। ‘उत्तरार्द्ध’, ‘बंधन’, ‘होश’, ‘सफर’, ‘कर्ज’, ‘झोंक’, ‘शर्मिदगी’, ‘बेशर्म’, ‘वस्तुस्थिति’, ‘मासूम’, ‘शहर’, ‘बाजार’, ‘मजबूरियाँ’, ‘तर्क’ और ‘कोठा संवाद’ (सीरीज) की रचनाएँ जीवन के यथार्थ से गहरा संवाद करती हैं।
कथाकार महेश दर्पण की ये लघुकथाएँ उनकी लंबी रचनायात्रा से निकले एक संवेदनशील रचनाकार की पहचान को तो अंकित करती ही हैं, एक प्रतिबद्ध सृजनशील लेखक की सार्थक अभिव्यक्ति के रूप में भी इन्हें पहचाना जा सकता है। वस्तुत: ‘मिट्टी की औलाद’ की रचनाएँ गंभीर लेखन में प्रवृत्त एक लेखक के सार्थक लेखन की गवाही भी देती हैं।