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लघुकथा पर श्री विष्णु प्रभाकर से अशोक भाटिया की बातचीत

18 मई 1986 को अजमेरी गेट नयी दिल्ली में श्री विष्णु प्रभाकर के निवास पर पहुँचा तो देखा, एकदम सादगी माहौल में सादगी में लिपटा एक व्यक्ति गंभीर मुद्रा में रचनाओं के बीच बैठा है। कुछ बातचीत के बाद हिन्दी लघुकथा पर उससे बातचीत की इच्छा व्यक्त की। कोई सवाल करने से पहले उन्होंने परम्परा का महत्व बताने पर काफी बल दिया। उन्होंने कहा–अरस्तू ने अग्नि और वायु (ऊपर जाने वाले) तथा जल और पृथ्वी चार तत्व माने। अब 120–25 तत्व माने जाते हैं। अरस्तू से न्यूटन व आइंस्टीन से होते हुए आज तक की खोज आपस में जुड़ी है। इसी तरह लघुकथा भी पहले से रहा है। पहले दृष्टांत के रूप में रही। लेकिन आज हम नैतिक मूल्य दिखाने वाली लघुकथा लिखें तो उसे नीतिकथा कहकर नकार देते हैं।
अशोक भाटिया– हाँ, व्यंग्य युक्त कथा को भी लघु व्यंग्य कहकर अलगाया गया है।
विष्णु प्रभाकर– युग में अन्तर के साथ कथ्य में भी अन्तर आया है। लेकिन अच्छे मूल्य की लघुकथा क्यों नहीं हो सकती?
अ.भा. – जी हाँ, सिर्फ़ निगेटिव होना ना काफी है। अच्छा, प्राचीन नीतिकथाओं और बोध–कथाओं को भी आप लघुकथा ही मानेंगे?
वि.प्र. – निश्चित रूप से। अब खलील को तो बीट करने से रहा कोई। (उनकी सीपी लघुकथा सुनाते हैं, फिर फूल पर अपनी लघुकथा कहते हैं)।
अ.भा. – आपका लघुकथा संग्रह ‘आपकी कृपा है’ मैंने पढ़ा है। उसमें कुछ रचनाएँ तो किसी स्थिति या घटना से शुरु होती है और उसी पर समाप्त होती है। लेकिन कुछ लघुकथाओं के अन्त में आप स्थिति या घटना के पूरा होने के बाद अपनी और से एक दो पक्तियाँ टिप्पणी के रूप में जोड़ते हैं। माफ कीजिए लगता है कि इससे रचना कमजोर....(चुप्पी)।
वि.प्र. – संभव है, अंत में उसकी जरूरत न हो....। हमारा काल चौथा दशक है, इसलिए हम पर प्रेमचंद युग का प्रभाव है। यह प्रेमचंद की भी आदत रही है। पर इस कारण प्रेमचंद को कोई छोटा तो नहीं मानता।
अ.भा. – नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था।
वि.प्र. –तो एक युग–सापेक्ष दृष्टि होती है। आज लघुकथा की आवश्यकता थी इसीलिए आई पर ये नहीं कि लघुकथा की जरूरत हुई तो पुरानी और लम्बी कथाएँ खत्म हो जाएँगी।
अ.भा. – सवाल यह है कि क्या आज की लघुकथा ने परम्परा से कुछ ग्रहण किया है?
वि.प्र. – कलेवर ग्रहण किया। जैसे आज भाषा, शिल्प और कुछ कथ्य में अन्तर आने पर भी कहानी वही है। (चुप्पी) पुराणों में एक जगह एक ऋषि कहते है कि मैं अपने पुत्र से पराजय की कामना करता हूँ। मैं अपने शिष्य से पराजय की कामना करता हूँ।
अ.भा. – यानी परम्परा को आगे बढ़ाने की बात कही है।
वि.प्र. – आगे बढ़ाने की बात है। अच्छा, मैं बहुत ज्यादा नहीं बोल पाऊँगा, वरना एसिडिटी का जोर पड़ने लगेगा।
अ.भा. – अच्छा, कुछ जरूरी सवाल है। चाहे तो संक्षेप में जवाब दीजिएगा। पिछले 15–20 सालों में लघुकथाएँ काफी लिखी गई हैं। अब हम मुड़कर इसकी कमजोरियाँ देख सकते हैं। आप कौन–सी कमजोरियाँ देखते हैं?
वि.प्र. – देखिए अब कलेक्टिव रूप में बहुत लिखा जाता है। तब काफी कूड़ा–कर्कट भी आता है। पर बेहतर चीजें वक्त को चीरकर ऊपर आती है। आज कहते हैं कि लघुकथा यह है, तो ठीक है यह तो है, साथ ही पहले की भी रहेंगी चाहे वो नीतिपरक हों चाहे कोई और........(चुप्पी)। बहुत अच्छी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं, लेकिन बहुत कुछ कूड़ा भी। लघुकथा तो युग की आवयकता है।
अ.भा. – कई लघुकथाएँ अच्छे कथ्य उठाने के बावजूद कूड़े में शामिल होती रही हैं?
वि.प्र. – हाँ, ऐसी बहुत है।
अ.भा. – नो टेक्निकल लिहाज से लघुकथा में सुधार की क्या गुंजाइश दिखाई देती है?
वि.प्र. – कथ्य, शिल्प और भाषा, किसी भी रचना के तीन अंग होते है। इन तीनों में यदि हम सन्तुलन बना सकते हैं, तो रचना उतनी ही अच्छी होगी। जैसे संगीत में रस (कथ्य), औचित्य और संयम–तीनों ठीक होना जरूरी हैं पर आज विरासत में विद्रोह ही मिला, जो संयम का चोर शत्रु है।
अ.भा. – लघुकथा में नए प्रयोगों की कितनी गुंजाइश है।
वि.प्र. – बहुत गुंजाइश है। इसमें शब्द का बहुत महत्त्व है। शरत्चन्द्र ने नारी के सौन्दर्य का वर्णन एक जगह यों किया है–यौवन जैसे उसके शरीर में ठहर गया था। इस तरह सामर्थ्य तो हममें भी नहीं है, परन्तु ऐसे प्रयास होने जरूरी है। मुझे नयों से सबसे बड़ा शिकवा यह है कि ‘वे’ पुरानों को पढ़ना नहीं चाहते। साधना नहीं रही।
अ.भा. –अच्छा, जैसे कविता के तत्व कहानी लेखन में बड़ा सहयोग देते हैं। इसी तरह लघुकथा में अन्य अनुशासनों के तत्वों के उपयोग से क्या हो सकता है?
वि.प्र. – हो सकता है।
अ.भा. – नाटकीयता का हो सकता है।
वि.प्र. – कुछ हद तक हो सकता है। लघुकथा के मसीहा तो नाटकीयता को तो मानते ही नहीं। इन तत्त्वों का प्रयोग लेखक की क्षमता पर निर्भर है।

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