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अशोक भाटिया

हिंदी में लघुकथा को लेकर ताबड़तोड़ वक्तव्य झाड़ने और अपना अविवेकी मत थोपने का मसीहाई समय बीत चुका है। लघुकथा के बहाने कुछ लिक्खाड़ों द्वारा अपनी स्थापना में दौड़ाए गए सातों घोड़े थक–हाँफकर औंधे मुँह पड़े हैं। वास्तव में लेखक जब रचना को समाज के स्थान पर अपने लिए माध्यम बनाता है, तो रचना और रचनाशीलता की दुर्गति होती है। इसके विपरीत समाज जब लेखक के लिए सर्वोपरि होता है, रचना–प्रक्रिया में अंत तक सामाजिक सरोकार ही प्रमुख होते हैं, तब स्वस्थ रचनाशीलता उजागर होती है। आइए, स्वस्थ रचनाशीलता पर लघुकथाओं के आधार पर कुछ चर्चा करें।
प्रेमचंद के ज़माने में लघुकथा का जन्म तो हो चुका था, किंतु उसका नामकरण अभी नहीं हुआ था। प्रेमचंद की ‘बाबाजी का भोग’ लघुकथा अपनी पूर्णता वे सहजता के बहाव में पाठक को एक विडंबना के सामने कब ला खड़ा करती है–पाठक को पता ही नहीं चलता। हरिशंकर परसाई की 77 लघुकथाओं में से अधिकतर में विद्रूप का सजग चित्रण और उसके ज़रिये प्रतिरोध की संस्कृति विकसित करने का सफल उपक्रम मिलता है। ‘जाति’, ‘संस्कृति’ इनकी ऐसी ही लघुकथाएँ हैं। रवीन्द्रवर्मा की लघुकथाएँ परिपक्व कथा–शिल्प के नए आयाम स्थापित करती हैं। ‘कोई अकेला नहीं है, ‘पर्वतारोही’ जैसी लघुकथाओं में दार्शनिक और काव्ययात्मक व्यवहार इन्हें श्रेष्ठ रचनाएँ बनाता है। भगीरथ की लघुकथाएँ वर्ग–चेतना और वर्ग–संघर्ष की इबारत लिखते हुए यथार्थ में प्रवेश करती है। इनकी ‘दोज़ख’, ‘फूली’ जैसी लघुकथाएँ यथार्थ की बुनावट और तार्किक परिणति–दोनों कारणों से मह्त्त्वपूर्ण हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा इतिहास की कडि़यों को नई दृष्टि से अपनी लघुकथाओं में रचते हैं। ‘दया’ ‘अनुराग’ इनकी ऐसी ही रचनाएँ हैं। सुकेश साहनी मानवीय स्पंदन के रचनाकार हैं, जो अपनी लघुकथाओं में सहजता, कहानीपन और प्रयोगधर्मिता को एक साथ सफलता से वहन करते हैं। ‘ठंडी रजाई’, गोश्त की गंध’ इनकी प्रमुख लघुकथाओं में शामिल हैं। ‘गोश्त की गंध’ में फैंटेसी और प्रतीक के धारदार प्रयोग से भारतीय समाज में व्याप्त विकृति को केवल उजागर करके छोड़ नहीं दिया गया, अपितु पूरी रचना में ही इसके प्रति जुगुप्सा पैदा करते हुए पाठक को इसके प्रतिपक्ष में खड़ा करने में यह लघुकथा सफल रही है। असग़र वजाहत की ‘शाह आलम कैंप की रूहें, नाम से दस लघुकथाएँ गुजरात के दंगों व नरसंहार पर लिखी ऐसी लघुकथाएँ हैं, जो अपनी संवेदनशीलता व अन्याय के प्रतिरोध के कारण पाठकों को लंबे समय तक याद रहेंगी। विष्णु नागर की ‘ईश्वर की कहानियाँ’ नाम से लिखी लघुकथाएँ भाषा के साथ खेलती हुई अपने सहज शिल्प में बहुत कुछ कहती–कुरेदती जाती हैं। राजेन्द्र यादव की ‘अपनी ही मूर्ति’ और ‘प्रेम पत्र’ लघुकथाएँ अपने बेहतरीन शिल्प में भरा–पूरा संसार रचती है। और ‘लघुता में प्रभुता’ का आदर्श प्रस्तुत करती हैं। चैतन्य त्रिवेदी की ‘खुलता बंद घर’ और रामेश्वर कांबोज ‘हिंमाशु’ की ‘ऊँचाई’ पारिवारिक धरातल की खूबसूरत लघुकथाएँ हैं। इन और इन जैसी कई श्रेष्ठ लघुकथाओं पर विस्तृत चर्चा की जा सकती है। समृद्ध और आत्म–विस्तार करने वाली रचनाएँ मनुष्य के साथ जीती हैं। यहाँ ऐसी दो लघुकथाएँ प्रस्तुत हैं :

पंजाबी से काली धूप–वरियाम सिंह
हिंदी से गो–भोजन कथा–बलराम अग्रवाल


रचना पर चर्चा करने की एक कसौटी यह है कि लेखक ने समाज से क्या ग्रहण किया और उसे अपनी रचना में कैसे दिया? रचना एक सामाजिक वस्तु है, इसलिए उसके सामाजिक प्रभाव का आकलन आवश्यक है।
वरियाम सिंह पंजाबी के समकालीन दौर के प्रमुख कथाकार हैं। इन्होंने आमतौर पर लम्बी कहानियाँ लिखी हैं। फिर भी वे ‘काली धूप’ जैसी लघुकथा लिखना ज़रूरी समझते हैं। कारण स्पष्ट है, बहुत–सी चीजें ऐसी हैं, जिन्हें लघुकथा में ही कहा जा सकता है। ‘ काली धूप’ में कोई घटना नहीं। सजग रचनाकार किसी घटना की प्रतीक्षा नहीं करता, अपितु अपनी दृष्टि से किसी भी स्थिति में रचनात्मकता की खोज कर लेता है। ‘काली घूप’ में केवल एक स्थिति हैं कड़ी धूप में माँ–बेटी खेत में गेहूं की बालियाँ चुन रही हैं। उधर से महलों वाले सरदारों की दोनों बेटियाँ हँसती हुई इनके सामने से गुज़रती हैं। बेटी का सवाल और मां का जवाब माँ–बेटी को ही नहीं, न्याय और समता की सोच रखने वाले हर पाठक को रोककर मानो उससे जवाब माँगता है। यह लघुकथा मुझे इसलिए प्रिय है कि बार–बार अपने को पढ़वाती है और हर बार कुछ प्रभाव छोड़ जाती है। यह रचना पाठक को उसकी रुचि व क्षमता के अनुसार श्रमिक वर्ग से जोड़ती है। इसके दृश्य–बंध को देखिए। पहला दृश्य माँ–बेटी का है, जो अंतत: बेटी पर केंद्रित है। दूसरा दृश्य महलों वाले सरदारों की दोनों बेटियों का है। तीसरा दृश्य फिर से, सिट्टे चुनती, बेटी पर केंद्रित है। पहले और तीसरे दृश्य का तीखापन इतना है कि पाठक दूसरे दृश्य पर टिक नहीं पाता–यही लेखक का मंतव्य भी है।
लेखक ने समाज–विषमता को सि‍र्फ़ दृश्यों से नहीं रचना की गतिशीलता को बाधित किए बिना आते गए हैं। एक ओर तंग वस्त्र हैं, दूसरी ओर पैबंद लगी सलवार और फटा दुपट्टा, एक ओर रूमाल से मुँह को हवा देने का जिक्र है, तो दूसरी ओर दुपट्टे से पसीना पोंछने का। एक ओर खिलखिलाकर हँसने का वर्णन है, तो दूसरी ओर थकावट से कमर में दर्द,भूख से पेट में बल पड़ने और अंग–अंग में थकान का। लेखक का सवाल यहाँ बेटी के सवाल के रूप में है–माँ, भला जवानी कब आया करती है? बेटी का सवाल जीवन के सार से जुड़ा है। जवानी सि‍र्फ़ उम्र से है या उसके लिए कोई आर्थिक आधार भी ज़रूरी है? मेहनत करती बेटी की जवानी का सिट्टा जिन स्थितियों ने मसल दिया है, उसी की ओर ध्यान खींचना लेखक का मंतव्य है। इन्हीं के हाथों से चुने सिट्टों की कनक खाकर महलों वाले सरदारों की बेटियाँ खिलखिला रही हैं। सारे जहान का दर्द यहाँ है। काली धूप प्रतीक है काली व्यवस्था का, जो श्रमिक–वर्ग के जीवन व यौवन को झुलसाती जा रही है। यह लेखक की प्रतिबद्धता है, जो उसे श्रमिक बेटी पर केंद्रित रखती है। इस रचना के सौंदर्य का स्रोत भी यही है। सौंदर्य कोई बाहरी चीज़ नहीं, पाठकीय चेतना पर रचना का जो प्रभाव है–सौंदर्य का सबसे बड़ा निकष भी वही है।
श्रेष्ठ रचना वह है, जिसके माध्यम से लेखक की प्रगतिशील चेतना की दस्तक पाठकीय चेतना पर पड़ती है और जिसे पढ़कर पाठक लेखकीय चेतना के उस आयाम पर विमर्श करता लगता है, जो उस रचना में आया है। इस दृष्टि से बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘गो–भोजन कथा’ का विवेचन करना ज़रूरी है। यह रचना मुझे इसलिए बहुत खूबसूरत लगती है कि इसमें हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी समस्या की ओर संकेत कर उसके व्यावहारिक समाधान के एक बिंदु को उभारा गया है। दुनिया की सबसे बड़ी समस्या नफ़रत की है। हिंसा, संकीर्णता वगैरा इसी के बायप्रोडक्ट हैं। इसका समाधान प्रेम है। भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता ही इसकी विविधता और साँझी संस्कृति रही है। विश्व के सबसे प्रमुख सातों धर्मों के लोग भारत में रहते हैं। सभ्यता और संस्कृति के रूप में हमने एक–दूसरे से इतना कुछ ग्रहण किया है कि अब शुद्धतावादी नज़रिए की बात दूर की कौड़ी और हवाई किले बनाने जैसी लगती है, समाज–विरोधी तो वह है ही। वैश्वीकरण के उपकरण देश में आ रहे हैं, तो उनसे जुड़ी सभ्यता और संस्कृति के आयाम भी उसके साथ आएँगे ही।
लेखक इस रचना में सामासिक संस्कृति की विरासत को मजबूत करने पर बल देता है, लगे हाथ इसके रास्ते में आने वाली संकीर्णताओं की बाड़ को भी तीखी कलम से ‘कलम’करता जाता है। ‘गोभोजन कथा’ लुप्त हो रही व की जा रही मानवता के पुनर्संस्कारीकरण की गाथा है। इन्दर की पत्नी माधुरी संतान–प्राप्ति के लिए गर्भवती गाय की तलाश में गोशाला से भी निराश लौटती है। फिर इंदर के कहने पर बशीर के घर जाती है। पर बशीर की गाय को आटा–गुड़ खिलाने की बजाय वह बशीर की विधवा गर्भवती की दुर्दशा देख उसी को आटा–गुड़ दे आती है। अपने बच्चे के लिए गई थी; गाय को देने गई थी, पर विधवा और उसके बच्चे के लिए दे आई। इंसान इंसान है, चाहे किसी धर्म या जाति का हो। सामाजिक संस्कृति की सहज रचनात्मक पैरोकारी यहाँ श्रेष्ठ रूप में मौजूद है। इस रचना और गाय में से इंसान को चुनता है। गाया निस्संदेह हमारी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, लेकिन इस सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी मनुष्य है। संकीर्ण, मानव–विरोधी बयानों को ‘गो–भोजन कथा’ जैसी रचनाएं निरर्थक सिद्ध करती हैं। हमारे संस्कार बेशक हमारे गिरेबाँ की तरह माने जाते हों, लेकिन संस्कार जब रूढि़यों पर आरूढ़ होकर आते हैं, तो धीरे–धीरे सामाजिक विकृति का एक कारण भी बन जाते हैं। बलराम अग्रवाल ने रूढ़ि पर आरूढ़ माधुरी को दिखाया है। किंतु ‘तन्द्रा’ से पहले वाली माधुरी जब सामाजिक सच्चाई से टकराती है, तो वह ‘तन्द्रा’ से जाग उठती है। उसका व्यवहार ही बदल जाता है। इस प्रकार इस लघुकथा में समाज की तन्द्रा को एक ‘शॉक् ट्रीटमेंट’ दिया गया है। सामाजिक बेहतरी के लिए यह परिवर्तनशीलता ही प्रगतिशीलता है। बेहतर समाज बनाने के लिए यह परिवर्तनशीलता ही प्रगतिशीलता है। बेहतर समाज बनाने के लिए रूढि़ग्रस्तता को तोड़ना–छोड़ना आवश्यक है–यह संदेश सहज ही ‘गोभोजन कथा’ में से निकलता है। लेखक के मन में स्वस्थ समाज का सपना पलता है, इसीलिए वह हिंदू संस्कृति के अहम् पक्ष–गाय–को भी इन्सान की तुलना में दरकिनार करता है। संभव है, कुछ संकीर्णमना व्यक्ति आपत्ति करें कि पूरी लघुकथा में गाय को एक चुटकी भी नहीं खिलाई या गाय मुसलमान के घर बँधी क्यों दिखाई। लेकिन एक काल्पनिक यथार्थ भी होता है। मूल्य–सौंदर्य की दृष्टि से ‘गोभोजन कथा’ हिंदी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में आती है।

लघुकथाएँ
काली धूप
वरियाम सिंह संधू

तीखी दोपहर। किरणों के मुँह से बरस रही आग।
सवेरे सूर्य चढ़ने से पहले ही, दोनों मा–बेटी खेत–खेत चलकर गेहूँ का सिला चुन रही थीं। सारे दिन की कमरतोड़ मेहनत। मुश्किल से रात के एक वक्त की रोटी।
बूढ़ी माँ थककर एक खेत के किनारे छोटी–सी बेरी के नीचे बैठ गई। पर बेटी सिट्टे चुनती जा रही थी....चुनती जा रही थी। पसीना उसके साँवले रंग में घुलता जा रहा था।
दूर सड़क से उतरकर, पगडंडी पर, महलों वाले सरदारों की दोनों बेटियाँ शहर से पढ़कर लौट रही थीं। काली ऐनकें लगाए, छाते ताने, तंग वस्त्रों में उनके शरीर की गोलाइयाँ मछलियों की तरह मचल रही थीं। रूमाल से मुँह को हवा देतीं, आपस में बातें करतीं, खिलखिलाकर हँसती उसके पास से गुज़र गईं।
बेटी उन्हें जाते हुए कितनी देर तक देखती रही। पसीना उसके सिर से पैर तक चू रहा था। थकावट से उसकी कमर में दर्द हो गया था। भूख से पेट में बल पड़ रहे थे। बदन में मानो सुइयाँ चुभ रही हों।...उसे लगा जैसे वह अभी गिर पड़ेगी। जल्दी–जल्दी वह मां के पास बेरी के नीचे जाकर बैठ गई। बेरी के पत्तों से धूप छन–छनकर आ रही थी।
पैबन्द लगी सलवार को उसने घुटनों से ऊपर उठाया। फिर फटे दुपट्टे से पसीना पोंछा। उसके शरीर का अंग–अंग थकान से निंदराया पड़ा था। उसके दिल ने चाहा कि छाया में लेट जाए। सो जाए....सो जाए।
फिर पता नहीं महलों वालों की गांव में दाखिल हो रही लड़कियों की पीठ पर नजर टिकाए उसे क्या ख्याल आया। माँ से पूछने लगी, ‘‘माँ, भला जवानी कब आया करती है?’’
बूढ़ी मां ने धँसी आंखों से उस चेहरे को गहराई से देखा। फिर किसी दार्शनिक की तरह बोली, ‘‘बेटी! जब बहुत हँसी आए, खिलखिला के....बिना किसी बात के।’’
लड़की के स्वर में जैसे सारे जहान का दर्द एकत्र हो गया, ‘‘हाय! हाय! माँ, यह तो पिछले साल बहुत आई थी।’’ हाथ में पकड़ा सिट्टा उसने उँगलियों में जोर से मसल दिया।
दूर तक... चारों ओर काली धूप धरती का बदन झुलसा रही थी।
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सिट्टा>सिला =फ़सल कटने के बाद खेत में बचे खुचे अनाज की बालियाँ या दाने ।

गोभोजन कथा
बलराम अग्रवाल


“याद आया,” गऊशाला से भी निराश निकलते इन्दर ने पत्नी को बताया, “अपना बशीर था न…वही, जो हाल के दंगों में मारा गया। उसकी गाय शायद गर्भिणी है।”
“छि:!”
“कमाल करती हो!” इन्दर तमतमा गया, “ बशीर के खूँटे से बँधकर गाय, गाय नहीं रही, बकरी हो गयी? याद है, दंगाइयों के हाथों उस गाय को हलाक होने से बचाने के चक्कर में ही जान गई उस बेचारे की…।”
“…”
“दो-चार, दस-पाँच दिन का समय दिया होता तो कहीं और भी तलाश कर सकते थे हम।” उसकी उपेक्षापूर्ण चुप्पी से क्षुब्ध होकर वह पुन: बोला, “शुभ-मुहूर्त है!…आज ही से शुरू करना होगा!!… पड़ गई साले ज्योतिषी के चक्कर में।”
चुप रही माधुरी, क्या कहती! सन्तान-प्राप्ति जैसे भावुक मामले में बेजान पत्थर और अव्व्ल अहमक तक को पीर-औलिया मानकर पूजने लगते हैं लोग। यह तो गाय थी, सजीव और साक्षात्। बशीर की ही सही। घर पहुँचकर उसने हाथ-मुँह धोए। लबालब तीन अंजुरीभर गेहूँ का आटा एक बरतन में डाला, तोड़कर गुड़ का एक टुकड़ा उसमें रखा और साड़ी के पल्लू से उसे ढाँपकर चल पड़ी बशीर के घर की ओर।
गाय बाहर ही बँधी थी, लेकिन गर्भिणी होना तय करने से पहले उसको कुछ देना माधुरी को ज्योतिषी की सलाह के अनुरूप नहीं लगा। सो, साँकल खटखटा दी। सूनी आँखों और रूख़े चेहरे वाली बशीर की विधवा ने दरवाज़ा खोला। देखती रह गयी माधुरी—यह थी ही ऐसी रूखी-सूखी या…! इन्दर तो एक बार यह भी बताते थे कि बशीर का बच्चा इसके पेट में है…!
“क्या हुक्म है?”
“मैं… माधुरी हूँ, इन्दर की पत्नी।” कभी गाय के तो कभी बशीर की बीवी के पेट को परखती माधुरी जैसे तन्द्रा से जाग उठी—“आटा लाई हूँ…ज्यादा तो नहीं, फिर भी अपनी हैसियत-भर…तुम्हारे लिए जो भी बन पड़ेगा, हम करेंगे बहन।” बरतन के ऊपर से पल्लू हटाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा, “संकोच न करो…रख लो…बच्चे की खातिर।”
बशीर की विधवा ने चूनर को अपने पेट पर सरका लिया और फफककर चौखट के सहारे सरकती हुई, धीरे-धीरे वहीं बैठ गयी।


 

 
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