नये रंगों की लघुकथाएँ– हरभजन खेमकरनी
समकालीन लघुकथा अपना रंग-रूप निखारने में लगी है। हिन्दी लघुकथा की तरह ही पंजाबी लघुकथा भी नये रास्ते तलाश रही है। नये विषयों पर रचनाएँ लिखी जा रही हैं और नये तजुर्बे भी किए जा रहे हैं। इससे लघुकथा नई दिशा की ओर बढ़ रही है।
आज के वैज्ञानिक युग में उलझी हुई समस्याओं से संम्बन्धित बहुत कम लघुकथाएँ लिखी गई हैं। ऐसी रचनाओं की कमी महसूस होती है। प्रगतिवादी विचारधारा को दर्शाती लघुकथाएँ लिखने का प्रयास कुछ लेखक कर रहे हैं। सक्षम लेखक इस अभियान में सफल भी हुए हैं। डा. श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं के चर्चित लघुकथा लेखक हैं। इस संदर्भ में मुझे उनकी लघुकथा ‘चिन्ता’ ने बहुत प्रभावित किया है। इस लघुकथा का विषय बहुत मार्मिक है तथा लेखक ने जिस तरह से इसका चित्रण किया है, वह प्रभावशाली है। रचना में आज के समाज की सही तस्वीर है। डा. दीप्ति की यह लघुकथा मुझे हर दृष्टि से सराहनीय लगी।
यह हर्ष का विषय है कि लघुकथा लेखक जहाँ नये विषयों की तलाश में जुटे हैं, वहीं कुछ रिवायती विषयों को नई दिशा दे कर भी लघुकथाएँ लिख रहे हैं। डा. कर्मजीत सिंह नडाला की लघुकथा ‘भूकंप’ इसका एक अच्छा उदाहरण है। नौजवान लड़का अपने पिता के बहुत जोर देने पर भी भीख माँगने के परिवार के ज़द्दी पुश्तैनी काम को न अपना कर मेहनत-मजदूरी कर धन कमाने को बेहतर समझता है। यह रचना हमारे देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या की ओर भी ध्यान दिलाती है, जिस कारण कुछ नौजवान भीख माँग कर गुजारा करने पर मजबूर हो जाते हैं। बाद में वे इसे अपना पेशा बना लेते हैं। डा. नडाला की यह रचना मेरे जेहन में गहरी बैठी हुई है।
******
चिन्ता
डा. श्याम सुन्दर दीप्ति
रेणु अपने पति राजेश के साथ माँ से मिलने जा रही थी।
रेणु की शादी को लगभग एक महीना हो गया था। उसने शादी से पहले ही राजेश को एक बात स्पष्ट कर दी थी कि शादी के बाद वह अपनी माँ को अकेली नहीं छोडेगी। वह ओर माँ, दो ही सदस्य तो थे घर में। शादी के बाद उसकी माँ घर में बिलकुल अकेली रह जाएगी।
राजेश ने कहा था, “मैं समझता हूँ तुम्हारी भावनाओं को, यह भी कोई कहने वाली बात है। यह तो हमारा फर्ज बनता है।”
वे जब घर पहुँचे, रेणु की माँ घर के दरवाजे पर खड़ी चावला साहब को ‘बाय-बाय’ कर रही थी। उन्हें देख चावला साहब कार स्टार्ट करते-करते रुक गए।
राजेश व रेणु से मिलकर तथा उनका कुशल-क्षेम जानकर वे चले गए।
चावला साहब रेणु के पिता के करीबी मित्र रहे हैं। रेणु के पिता की मृत्यु के पश्चात उनका सम्पर्क इस परिवार से बना रहा। रेणु के विवाह में राजेश को भी चावला साहब की सरगर्म भूमिका का एहसास हुआ था।
जब रेणु की माँ उनके लिए पानी लेने गई तो राजेश ने कहा, “रेणु, चावला अंकल को ‘बाय-बाय’ करते वक्त मम्मी की आँखें देखी थी?”
“क्या था आँखों में?” रेणु एकाएक घबरा-सी गई।
“खुशी ओर वियोग की मिली-जुली झलक थी।” राजेश का जवाब था।
रेणु कुछ नहीं बोली। वह विचारमग्न हो गई कि राजेश की इस बात का क्या अर्थ है।
माँ से मिलने के पश्चात वे लौट आए थे, पर रेणु के मस्तिष्क में राजेश की कही बात घूम रही थी। वह सोचती रही– राजेश ने मम्मी के बारे में ऐसा क्यों कहा?
रात को बिस्तर पर लेटने के पश्चात रेणु ने राजेश से पूछा, “क्या कह रहे थे तुम सुबह? तुमने मम्मी की आँखों में क्या देखा?”
“ओह! कुछ नहीं! तुमने कौन सा पहले नहीं देखा होगा…मैं तो कहना चाहता था…तुम यूँ ही मम्मी की चिन्ता करती हो, उनकी तरफ से निश्चिंत हो जाओ…वे वहाँ खुश हैं।” राजेश ने रेणु के नज़दीक होते हुए कहा।
-0-
भूकम्प
डा. कर्मजीत सिंह नडाला
बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी अपने साथ ले जाने लग पड़ा।
‘कैसे हाथ-पाँव टेढ़े-मेढ़े कर चौक के कोने में बैठना है, आदमी देख कैसे ढीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए तरस का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।’
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता, वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा, “जा अब तू खुद ही भीख माँगा कर।”
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर पिता की ओर बढ़ाए, “ले बापू, मेरी पहली कमाई…।”
“हैं! कंजर पहले दिन ही सौ रुपये! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमा कर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गए?”
“बस ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।”
अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?”
“नहीं, बिलकुल नहीं।”
“अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने-रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं…तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई?”
“बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश हो कर पैसे दे देते हैं।”
“तू कौन से नए ढंग की बात करता है, कंजर! पहेलियाँ न बुझा। पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँग कर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है। पल भर की आँखों की शर्म है…हमारे पुरखे भी यही कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है…हमारा तो यही रोजगार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा…।”
“बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी कर के आया हूँ। एक कालोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपये दिए। सरदार कह रहा था, रोज आ जाया कर, सौ रुपये मिल जाया करेंगे…।”
पिता हैरान हुआ कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप आ गया था, जिसने सब कुछ उलट-पलट दिया था।