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कमलेश भारतीय
‘आवारा मसीहा’ के कालजयी रचनाकार विष्णु प्रभाकर हिसार से लगभग दो दशक जक जुड़े रहे। कलम का सफर भी विष्णु प्रभाकर ने हिसार से ही शुरू किया और शिखर पर पहुँच कर भी वे हिसार को नहीं भूले। इसके बावजूद मेरा विष्णु प्रभाकर से पहला परिचय सन् 1975 के फरवरी माह में अहमदाबाद में गुजरात विश्वविद्यालय में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा लगाए अहिंदी भाषी युवा लेखक शिविर में हुआ था। वे मेरे व अन्य युवा लेखकों के कथागुरु थे और कहानी की क्लास लिया करते थे। लघुकथाओं में मेरी रुचि को देखते विष्णु प्रभाकर ने लघुकथाओं का पाठ भी किया था। हालांकि उन दिनों वे ‘आवारा मसीहा’ से मिल रही चर्चा में आकंठ डूबे थे। ये लघुकथाएँ मेरी पसंद इसलिए नहीं बनीं कि मेरा विष्णु प्रभाकर या हिसार से गहरा नाता है। ये लघुकथाएँ बिलकुल विष्णु प्रभाकर के सादा व सरल व्यक्तित्व से पूरी तरह मेल खाती हैं और आदमी के जानवर हो जाने का साफ फर्क सामने लाती हैं। जानवर हैं, वे तो फर्क करना नहीं जानते लेकिन आदमी हैं कि अपने–पराए मे भेद करना जानता है। इतना विवके उसमें है। संदेश यह गूँजता है कि काश! यह इतना–सा विवके नहीं होता तो विभाजन की नौबत नहीं आती। ऐसा ही सरल रचना ‘चोरी का अर्थ’ है। इसमें चोर न मानकर ईमानदारी गिरवी रख गया, कितना सुंदर उपयोग है। बस, इसी सादगी पर मैं कुर्बान हो गया। ये रचनाएँ मन में बरसों से छाई हुई हैं। मुझे स्वय शिल्प या बनावट या बुनावट की चिंता कम सताती है और मैं यह कहता भी हूँ कि लघुकथा उस क्षण की रचना है, जिसे जानबूझकर विस्तार नहीं दिया जा सकता। विस्तार दोगे तो बुनावट शुरू हो जाएगी। ‘चोरी का अर्थ’ में विष्णु प्रभाकर बुनावट से बचे हैं। बेशक उन्होंने लघुकथाएँ कम लिखीं लेकिन ये मेरी पसंद की रचनाएँ हैं। यों सोल्जेनित्सिन की चींटियाँ भी बहुत प्रिय लघुकथा है, वह ढूँढे नहीं मिली। उसमें आग के बावजूद चींटियाँ चलती रहकर संघर्ष का संकेत देती हैं। विष्णु प्रभाकर को नमन्।

1-फर्क
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा–रेखा को देखा जाए। जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है। दो थे, तो दोनों एक–दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों और पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है, जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था–पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमांडर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमांडर ने उसके कान में कहा–‘‘उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं, क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।’’
उसने उत्तर दिया–‘‘जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?’’
और मन ही मन कहा–‘‘मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान हूँ, अपने–पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें हैं।’’
वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रोबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिला। उस दिन ईद थी। उसने उन्हें बुलाकर कहा। बड़ी गर्मजोशी के साथ एक बार फिर साथ मिलाकर वे बोले–‘‘उधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।’’
इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यंत विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा–‘‘बहुत–बहुत शुक्रिया! बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफी चाहता हूँ।’’
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गयां एक साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा ‘‘ये आपकी हैं?’’
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया–‘‘जी हाँ, ज़नाब, हमारी हैं, फर्क करना नहीं जानते।’’

2-चोरी का अर्थ
एक लंबे रास्ते पर सड़क के किनारे उसकी दुकान थी। राहगीर वहीं दरख्तों के नीचे बैठकर थकान उतारते और उससे कुछ चना–चबैना लेकर भूख मिटाते। दुकानदार उन्हें ठंडा पानी पिलाता और सुख–दुख का हाल पूछता। इस प्रकार तरोताजा होकर राहगीर अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया।
एक दिन एक मुसाफिर ने चार–पाँच आने का एक सामान लेकर दुकानदार को रुपया दिया। सदा की भाँति अंदर की अलमारी खोली और रेजगारी देने के लिए अपनी चिर–परिचित संदूकची उतारी, पर जैसे ही उसने ढक्कन खोला, उसका हाथ जहाँ था, वही रुक गया। यह देखकर पास बैठे हुए आदमी ने पूछा–‘‘क्यों, क्या बात है?’’
‘‘कुछ नहीं!’’ दुकानदार ने ढक्कन बंद करते हुए कहा–‘‘कोई गरीब आदमी अपनी ईमानदारी मेरे पास गिरवी रखकर पैसे ले गया है।’’

 

 
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