श्रेठ रचना से ही किसी विधा विशेष की अभिव्यक्ति क्षमता का अहसास होता है। आज सैकड़ों की संख्या में विभिन्न पत्र–पत्रकाओं में लघुकथा का प्रकाशन जारी है। इन असंख्य रचनाओं में कभी–कभार कुछ ऐसी रचनाएँ भी सामने आ जाती हैं जो अपनी अभिव्यंजना शक्ति से गहरे तक झिंझोड़ती हुई हमेशा के लिए अनुभूति का हिस्सा बन जाती है। यहाँ में ऐसी दो लघुकथाओं का जिक्र करना चाहूँगा जिसने मेरे भीतर लघुकथा की अद्भुत अभिव्यक्ति क्षमता के प्रति आस्था के अंकुरण को वट वृक्ष की तरह फैलाने का काम किया है। मेरी पंसद की पहली लघुकथा का शीर्षक है ‘रंग’ जो चर्चित लघुकथा लेखक डॉ0 अशोक भाटिया की रचना है। ‘रंग’ शिल्प और संवेदना की दृष्टि से एक मानक रचना है। लेखक की सूक्ष्म अनुभूति से उपजी यह रचना सामान्य स्थिति में डेढ़ से दो मिनट में पढ़ी जा सकती है। इस रचना की अन्तर्धारा में यह बात स्पष्ट है कि सार्वजनिक जीवन से कटा हुआ व्यक्ति अपने भीतर के खालीपन से किस कदर डर जाता है। ‘रंग’ संवेदनात्मक अनुभूति पर आधारित सहज रूप से तिलमिला देने वाली रचना है। यह लघुकथा सूक्ष्म विचार शक्ति और सर्जनात्मक क्षमता का विस्मयकारी प्रमाण है।
इस लघुकथा में अन्तर्निहित विचार पक्ष जितना सबल है शिल्प भी उतना ही संतुलित।
इस लघुकथा का नायक बेहद अंहकारी है। होली के दिन वह घर से बाहर निकलने के पूर्व सोचता है कि मुहल्ले भर में उसका दबदबा है, इसलिए उस पर रंग डालने या गुलाल फेंकने की गुस्ताखी नहीं का सकता। उसकी यह धारणा सही सिद्ध होती है, कोई उस पर रंग नहीं डालता लेकिन वह अंहकार से अपनी भावनाओं को नहीं जीत पाता, जिसके फलस्वरूप ‘वह’ अपने आप को समाज से कटा हुआ महसूस करता है और एकाएक स्वत: घर में आईने के सामने बैठकर अपने चेहरे पर गुलाल मल लेता है।
जहाँ पर लघुकथा का नायक हारता है वहीं पाठकों का मन संतुष्ट हो जाता है और लघुकथा अपने उद्देश्य तक पहुँच पाती है। एक सूक्ष्म भाव को अशोक भाटिया में सहज दंग से शाब्दिक अभिव्यक्ति दी है। शब्दों का चमन भी सटीक ढंग से किया गया है।
यह लघुकथा शाब्दिक रूप में जहाँ समाप्त होती है ,वहीं से यह पाठकों के मन में शुरू होती है और यही किसी भी रचना की सफलता की मूल कसौटी है।
एक स्पष्ट दृष्टि के साथ मानवीय अहंकार के एक पहलू को कथाकार ने उजागर करते हुए सामाजिक सहभागिता की जरूरत को सामन रखा है। इस रचना का शिल्प और परिवेश हमें गहरे तक उद्वेलित करता है।
मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा है ‘अपने–अपने सपने’ यह व्यवस्था जनित आर्थिक असमानवताओं के बीच अंकुरित हो रहे बचपन की विडम्बना पूर्ण स्थिति का बड़ा ही मार्मिक और विचारोत्तेजक अभिव्यक्ति है। यह सुपरिचित व्यंग्यकार घनश्याम अग्रवाल की रचना है। यह लघुकथा न सिर्फ़ रचनाकार की गझिन संवेदना से साक्षात्कार कराती है, बल्कि लघुकथा के माध्यम से परिवेश और स्थितियों की अभिव्यक्ति क्षमता को भी व्यक्त करती है। जीवन की मामूली किंतु जरूरी सुविधाओं से वंचित बालमन की इससे ज्यादा मारक अभिव्यक्ति लघुकथा में अकसर देखने को नहीं मिलती। कथानक भाषा के साथ इस तरह घुला हुआ है कि जैसे शरीर के भीतर आत्मा। इस रचना की बड़ी बात है इसकी विश्वसनीयता। अपने उत्कर्ष पर यह लघुकथा विचार के कई बिन्दु छोड़ती है। और एकबारगी पाठक स्तब्ध रह जाता है। लघुकथा का सार यह है कि बीच की छुट्टी में बच्चे स्कूल के प्रांगण में बातें करते हैं। किसिम–किसिम की बातें। ‘झोपड़पट्टी की छोटी अक्सर रात में देखे सपने की बात करती है। वह सपने में पेड़ पर रोटियाँ लगी देखती तो कभी कहती कि सपने में उसने एक रेलगाड़ी ऐसी देखी जिसमें चक्कों की जगह रोटियाँ लगी थीं। कभी कहती कि कोई राक्षस आकर उसकी सारी रोटियाँ छीन ले गया, तो कभी कहती.....
एक दिन वह सपना सुना रही थी कि, ‘‘ कल मैंने सपने में एक रोटी ऐसी देखी कि....।’’
‘‘ठहर, थम जरा छोटी! तू हर दिन रोटी के ही सपने सुनाती रहती है, क्या तुझे दूसरे सपने नहीं आते?’’
‘‘क्या दूसरें सपने भी होते हैं?’’ आश्चर्यमिश्रित भोलेपन से भरा छोटी का जवाब था, और सवाल भी।
वर्ग भेद से इंसान का वैचारिक धरातल किसी सीमा तक प्रभावित होता है इसे समझने में यह लघुकथा मददगार है।
इन दो लघुकथाओं के अतिरिक्त सतीश दुबे की ‘अंतिम सत्य’ युगल की ‘पेट का कछुआ’ सुकेश साहनी की ‘ठंडी रजाई, बलराम अग्रवाल की ‘आखिरी उसूल’, अशोक भाटिया की ‘कपों की कहानी’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘परंपरा’ राजेन्द्र यादव की ‘ कोठरी वाली माँ’, डॉ0 आदित्य अरोड़ा की ‘मद में मस्त’ कमल चोपड़ा की ‘खेल’ विनायक की ‘चील’, प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘खोज’ सिद्धेश्वर की ‘दृष्टि’ तारिक असलम की ‘सिर उठाते तिनके’ राज हीरामन की ‘माँ का अँगूठा’, देवांशु पाल की ‘आग’, डॉ0 रामकुमार घोटड़ की ‘श्रद्धा और मजबूरी’, ,उपेन्द्र प्रसाद राय की ‘हड्डी और बफादारी’, विष्णु प्रभाकर ‘चोरी का अर्थ’, जोगेन्द्र पाल की ‘जागीरदार’, रत्नकुमार साँभरिया की ‘घोंसला’ इत्यादि मेरी पसंद की ऐसी लघुकथाएँ हैं, जिनसे साहित्य का सामाजिक आधार मजबूत होता है। ये लघुकथाएँ विधा के महत्त्व को रेखांकित करने में प्रत्येक दृष्टि से सक्षम हैं। -0-
रंग
अशोक भाटिया
होली का दिन है। ज्यों–ज्यों दिन चढ़ता जाता है, इस कस्बे में होली खेलने की उमंग बढ़ती जा रही है ।
श्रीनिवास का रौब–दाब है। आज वे स्कूटर की बजाय साइकिल पर बाज़ार को निकले हैं। वे देखते हैं कि चारों तरफ होली का रंग अपने निखार पर है। कहीं–लाल–पीला रग लगाया जा रहा है, कहीं लोग आपस में गले मिल रहे हैं तो कहीं ढोलक के साथ नाच रहे हैं।....किसी को छोड़ा नहीं जा रहा।
लेकिन श्रीनिवास को देखकर किसी में उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं होती। बड़े अफसर हैं, बुरा न मान जाएँ। और श्रीनिवास के चेहरे पर भी जैसे हम एक अहं है कि देखो, मुझ पर कोई रंग नहीं डाल सकता।
यही होता है। वे वैसे ही घर लौट आते हैं। पत्नी सामान थामते हुए कहती है–‘वाह! किसी ने रंग नहीं लगाया?’
श्रीनिवास एक खिसियानी हँसी हँसकर कमरे में आ जाते हैं। रास्ते के रंग–भी दृश्य एक–एक कर उनकी आँखों के आगे आने लगते हैं। अचानक उन्हें लगता है कि वे कस्बे में सबसे अलग–थलग पड़ गए हैं।
वे उठते हैं और मेज पर रखे लिफाफे में से गुलाल निकालकर अपने मुँह पर लगा लेते हैं।
अपने–अपने सपने
घनश्याम अग्रवाल
बीच की छुी में सभी बच्चे घेरा बनाकर बैठ जाते थे और सारा खाना, जो वे अपने–अपने घर से लाते, सब मिलकर खाते थे। फिर खेलते थे। खाना खाते समय और बाद में भी वे बातें करते थे। उनमें सबसे ज्यादा छोटी ही बोलती थी।
छोटी अपने कई भाई–बहनों के साथ झोपड़पट्टी में एक छोटी–सी झोंपड़ी में रहती थी, जिसे वह सिर्फ़ इसलिए घर कह सकती थी कि वह फुटपाथ पर नहीं थी। बाकी सुविधाएँ धूप,पानी और हवा फुटपाथ जैसी ही थीं। छोटी का बाप कहीं भाग गया था। माँ और बड़ी बहन बर्तन–चौका करतीं। छोटी अभी बर्तन–चौका करने लायक नहीं हुई थी। अभी वह खुद एक छोटे–से बर्तन जैसी दिखती थी। इसलिए प्राथमिक शाला में पढ़ने जाती थी। वह बीच की छुट्टी के लिए खाना नहीं ला पाती थी। उसके कपड़े जरूर दूसरे बच्चों के कपड़ों से हलके व गन्दे रहते, पर उसके चेहरे की मासूमियत दूसरे बच्चों से कहीं कम न थी। बाकी बच्चे भी अभी इतने बड़े नहीं हुए थे कि वे ऊँच–नीच व गरीब–अमीर के भेद को जान सकें। इसलिए वे छोटी को भी अपने साथ खाना खिलाते।
छोटी पढ़ाई में तो ज़्यादा होशियार न थी, पर वह इधर–उधर की बातें बड़ी तन्मयता के साथ, भाव–भंगिमाओं सहित सुनाती। दूसरे बच्चे कुछ झिझकवश कम बोलते, अत: छोटी का प्रभाव उन पर पड़ जाता। इसलिए भी वे छोटी को अक्सर अपने पास बुलाते और हर बच्चा झट से उसके करीब बैठने के लिए ‘कुर्सी–दौड़ की रिहर्सल’ कर लेता। छोटी भले ही न जाने, पर उसके नन्हे–से दिल में जरूर यह बात घर कर गई थी कि इनका खाते हैं तो इनको बातें सुना–सुनाकर रिझाना भी चाहिए। और वह रोज रिझाती भी थी।
छोटी अक्सर रात में देखे सपने की बातें करती। कभी कहती, कल उसने सपने में पेड़ पर रोटियाँ लगी देखीं। कभी कहती, सपने में उसने एक रेलगाड़ी ऐसी देखी, जिसमें चक्कों की जगह रोटियाँ लगी थीं। और कभी कहती कि कोई राक्षस आकर उसकी सारी रोटियाँ छीन ले गया, तो कभी कहती, आज सपने में एक परी आई। उसने मुझे एक जादू की छड़ी दी, जिसको घुमाते ही मेरे पास ढेर सारी रोटियाँ आ गईं। फिर हम सब उन रोटियों को खाने लगे और उनसे खेलने लगे।
एक दिन वह सपना सुना रही थी, ‘‘कल मैंने सपने में रोटी ऐसी देखी कि.....’’
‘‘ठहर थम जरा छोटी! तू हर दिन रोटी के ही सपने सुनाती रहती है, क्या तुझे दूसरे सपने नहीं आते?’’ एक बच्चे ने पूछा।
‘‘क्या दूसरे सपने भी होते हैं?’’ आश्चर्यचकित भोलेपन से भरा छोटी का जवाब था, और सवाल भी।
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