मुझे यहाँ अपने इस लघु आलेख में अपनी पसंद की लघुकथाओं का उल्लेख करना है, परन्तु करूँ क्या। कुछ तल्ख बातें करने से परहेज़ नहीं कर सकता। इन्हें मेरी निजी सीमाएँ। अवधारणाएँ, कमी आदि मान कर क्षमा कर दें। जो जो विधाएँ कागज़ पर कम जगह घेरती हैं, उन्हीं की भरमार पत्र पत्रिकाओं में देखने को मिलती है। यहाँ हर कोई कवि, गज़लगो व्यंग्यकार और लघुकथाकार बन बैठता है। (पूरी कविता की किताब के शब्द गिन लें। और किसी ठीक ठाक ढंग की एक कहानी के शब्द गिन लें। लगभग बराबर बैठते हैं।) इन लघुकथाओं, कविताओं वाला यह खेल, संपादकों को भी खूब सुहाता है। वे एक साथ, एक ही अंक में कई लेखकों को, ओब्लाइज़ कर उन्हें ग्राहक भी बना लेते हैं। खैर......
मेरे हिसाब से चंद फौलाद से तपे हुए अल्फ़ाज़ के बलबूते पर जो लघुकथाकार अपना जादू चढ़ा जाए, वही श्रेष्ठ लघुकथाकार है। मगर ऐसा होता बहुत कम है। कहने को, वैसे सभी यही कहते हैं कि कविता को साधना आसान काम नहीं (यह बातें कुछ पुराने योग्य (और पूज्य भी) कवियों यथा निराला, पंत, प्रसाद, सूर, तुलसी, मैथलीशरण गुप्त, मीरा भूषण आदि पर ही लागू हो सकती हैं) लघुकथा के विषय में भी असली बात तो यही है कि लघुकथा लिखना, हर एक के बस की बात नहीं। लेकिन सोचना यह भी होगा कि फिर ऐसी विधाओं के लेखकों की भरमार क्यों है। (क्या ये सारे के सारे साधक और तपस्वी हैं) ज़ाहिर है : साहित्य का शार्टकट मैंथेड बहुतों को खूब सुहाता है।
ढेरों,–ढेरों, अपने बचपन में पढ़ी,स्कूलों, कॉलेज की कोर्स तक की अँग्रेजी की तथा कुछ हिन्दी की कहानियाँ मुझे ज़बानी याद हैं। एन्टन चेखव की लगभग सारी कहानियाँ भी बैठे–बैठे सुना सकता हूँ। तब क्या वजह है कि दो चार लघुकथाओं को छोड़ कर, उनके साथ उन लघुकथाकारों के नाम मेरी ज़बान पर क्यों नहीं आ पाते। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं, इस पर टिप्पणी करने का अधिकार सबको है। इस अधिकार को मैं यहाँ विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ। पर जो हैं–मेरे साथ है–उसे भी अस्वीकार कैसे करूँ।
कुछ मित्रों की उदारता से, उनके लघुकथा संग्रह उपलब्ध होते रहते हैं। अपने दायित्व के निर्वाह हेतु उन पर कुछ लिखता भी हूँ। उन्हें पलटने पर निश्चित रूप से कुछ अच्छी, पुरअसर लघुकथाएँ मिल सकती हैं। मगर मैं चाहता हूँ कि उसी प्रकार बिना प्रयास के, बड़ी कहानियों की ही तरह, लघुकथाएँ भी मेरे मन मस्तिष्क में कौंधती रहें। दुख है, ऐसा नहीं हो पा रहा, जबकि कहानी तथा साहित्य की अन्य विधाओं की कृतियाँ जो जो मैंने पढ़ रखी हैं, उनको लेकर अपनी स्मृति पर मुझे पूरा भरोसा है।
हाँ, बात मुझे सिफर् अपनी पसंद की लघुकथाओं की करनी है। तो बताता हूँ, सुकेश साहनी की लघुकथा ‘‘ठंडी रजाई’’ को कभी नहीं भूल पाया :–
यह एक मनुष्य के अंदर गहरे तक बैठे संवेदनशील व्यक्ति की कथा है। कथा दूसरों का दुख दर्द पहचानने वाले की ही नहीं, उसे मनुष्यता के धरातल पर सहने, महसूस करने वाले मनुष्य की भी व्यापक कथा है, जिसे लेखक ने बहुत ही नपे तुले, साधारण शब्दों, शैली में अत्यंत कलात्मक रूप में कह दिया है। ऊपर से आदमी, बेशक क्रूर स्वार्थी भले ही बन बैठे किन्तु जब वह अपने आपको अपनी संपूर्णता के साथ टटोलता है तो वहाँ अपने मनुष्यत्व को बैठे पाता है।
क्हानी का कथ्य इतना है :– रात को खूब ठंड पड़ रही है। सामने वाली गृहस्थिन पड़ोसी दंपती से रज़ाई माँगने आती है। उसके यहाँ अचानक मेहमान आ गए हैं। दंपती उस गृहस्थिन को बहाना बनाकर मना कर देती है। परन्तु उसे खाली हाथ लौटाने के बाद उन्हें ( दोनों पति पत्नी को) अपनी रजाई ठंडी लगने लगती है। उन्हें नींद नहीं आती। वे अपनी शाश्वत नैतिकता से विवश होकर, उस पड़ोसिन को अपने घर में यूँ ही पड़ी रजाई दे आते हैं। तभी मज़े की नींद सो पाते हैं।
‘‘मुआवजा’’ लघुकथा (लेखक का नाम याद नहीं आ रहा) की लघुता, भाषा की सौम्यता तो है ही। इस लघुकथा का कथ्य भी अत्यंत प्रबल है। एक बाप अपने बेटे की शादी के लिए दहेज स्वरूप पाँच लाख रूपए की माँग रखे हुए है। इसलिए अभी तक कहीं रिश्ता तय नहीं हो पा रहा। तभी दुर्भाग्यवश बेटे की एक्सीडेंट में मृत्यु हो जाती है। बाप को बतौर मुआवज़ा पाँच हजार रूपए मिलते हैं। यह एक, मनुष्य की आँखें खोल देने वाली सशक्त लघुकथा है।
‘‘प्रमाण’’ ‘‘मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा भी याद है। गुंडों के साथ एक निर्दोष रिक्शा वाला भी पुलिस की गलती से पकड़ लिया जाता है। गुंडे तो रसूख से छूट जाते हैं पर रिक्शा वाले को जमानत पर छुड़ाने वाला कोई नहीं। मजिस्टे्रट उसके मासूम निरीह चेहरे को भांप लेता है। उससे निर्दोषता का प्रमाण माँगता है। रिक्शा वाला अपने खुरदरे छिले हुए हाथ आगे कर देता है जो उसकी मशक्त के प्रमाण हैं। मजिस्टे्रट द्रवित हो उसे छोड़ देता है। यह मेरी बहुत–बहुत पहले की पढ़ी हुई है। इस प्रकार मुझे कुछ गिनी चुनी ही लघुकथाएँ ज़़बानी याद हैं।
हाल ही में हमारे शहर के देव शर्मा की लघुकथाओं की पुस्तक आई है, ‘‘थाली कैसे बजेगी’’। शीर्षक कथा का कथ्य अति साधारण रटा रटाया है। बाकी की तमाम लघुकथाएँ भी लचर ही हैं। किन्तु पुस्तक की अन्तिम लघुकथा ‘‘स्वागत’’ मन मोह ले गई। सिफर्, आम आदमियों की समस्याओं को बड़ी सादगी से अभिव्यक्ति दे पाने की सामथ्र्य के कारण। न तो इसमें शिल्प की पेचीदगियाँ हैं। न भाषा का ही चमत्कार। तो कम से कम मुझ पर स्थाई प्रभाव छोड़ गई। नेताजी चुनाव जीत कर, अपने पूरे काफिले के साथ, मुहल्ले में आए हैं। चेले चाटों के हाथों में, ढेरों फूल मालाएँ हैं। वे जिस तिस को मालाएँ पकड़ा–पकड़ा कर कह रहे हैं, लो, नेताजी के गले में पहना कर उनका स्वागत करो। एक आदमी के हाथ में फूल माला तो है लेकिन दिमाग़ में कुछ और ही है। पैंतालीस दिन गुज़रने पर भी उसके घर गैस सेलेंडर नहीं आया। सैलेंडर पाने के लिए उसकी बेचैनी देखते ही बनती है। तभी वह देखता है, गैस कर्मचारी गली के मोड़ से उसके घर की तरफ साइकिल पर, सैलेंडर लिए चला आ रहा है। मारे खुशी के वह आदमी, आगे बढ़कर वह फूलमाला, सैलेंडर को पहना देता हैै
इस प्रकार हम देखते हैं कि सहज ग्राह्य भाषा का भी, सशक्त कथ्य के साथ जुड़ना, उत्कृष्ट लघुकथा की शर्त बन जाती है।
अच्छी अपनी पसंद की चंद लघुकथाओं की चर्चा में ऊपर कर आया हूँ। यादाश्त की बात भी मैंने कर दी है। और अच्छी लघुकथाओं के बारे में भी कह आया हूँ। सो उनका जिक्र करता हूँ।
‘‘साहित्य अमृत’’ के एक अंक में कमल चोपड़ा की एक साथ बहुत सी लघुकथाएँ छपी थीं। उन में से अधिकतर मुझे अच्छी लगी थीं। एक डॉ. रामकुमार घोटड़ की भी कहीं पढ़ी थी। उसके लिए फोन पर, मैंने उन्हें बधाई भी दी थी।
और भी बहुत सी अच्छी लघुकथाएँ नज़र से गुजरती रहती हैं जो पढ़ते समय बहुत अच्छी लगती हैं। सबका उल्लेख तो संभव नहीं (मेरी और इस आलेख की अपनी सीमाएँ हैं।)
हाँ जो पुस्तकें इस वक्त मेरे सामने हैं। और उनमें जो जो मुझे अच्छी लगी थी, उन पर निशान लगाए थे। उनके नाम गिना कर अपना थोड़ा सा फज़र् अदा करता हुआ फिलहाल इस आलेख को खत्म करने का यत्न करता हूँ।
सुरेन्द्र अरोड़ा की ‘‘आजादी’’ लघुकथा संग्रह में एक्शन तथा बहस। तारिक असलम तस्कीम की ‘खुदा की देन’’ लघुकथाओं में मुस्लिम समाज की समस्याओं को विशेष रूप से उकेरा गया है। सुरेन्द्र अरोड़ा द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह ‘‘दरकते किनारे’’ में जगवीर सिंह वर्मा की ‘‘मतदाता’’। सुरेन्द्र मंथन की पुस्तक ‘‘भीड़ में’’ की लघुकथाएँ तो सोचने वाली लघुकथाएँ हैं किन्तु उनकी भाषा शैली में मुझे लघुकथा के हिसाब से अधिक गंभीरता के स्वर मिले। नदीम अहमद ‘‘नदीम’’ की ‘‘समय चक्र’’ में अधिकतर लघुकथाओं में शिक्षा शिक्षक की समस्याओं के साथ मुसलिम समाज, नेताओं की लघुकथाओं में कुछ बेहतर भी हैं। मुरलीधर वैष्णव चूंकि स्वयं न्यायाधीश हैं। अत: उनके कथा संग्रह ‘‘अक्षय–तासीर’’ शीर्षक न तो ठीक से समझ में आने वाला है और न ही कर्णप्रिय है, की बहुत सारी लघुकथाओं को न्यायालयों/वकीलों/प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार को सहज शब्दों में उजागर किया है।
सुकेश साहनी द्वारा संपादित की बीसवीं सदी की ‘‘लघुकथाएँ’’ में मैंने बहुत सी अपनी पसंद की लघुकथाओं पर निशान लगाए थे ‘सपने’’ (अनिनंदिता) ‘‘मातृत्व’’ अनूप श्रीवास्तव) ‘‘चितपट’’ अशोक गुजराती। बच्चे (एच.एल.ठक्कर) ‘‘बेताल का बयान’’ जया ‘‘नर्गिस’’। जिन्दर, नरेश पंडित, नरेन्द्र बागड़ी, हसन जमाल, प्रेमकुमार गोविल, परन्तु बलराम की ‘मृगजल’ पर मैंने लिख रखा है। यह लघुकथा नहीं है। और बहुत से लोगों की भी अच्छी लघुकथाएँ हैं। सबके नाम गिनाना मुश्किल है। तो इसका मतलब यह हुआ कि बीसवीं सदी प्रतिनिधि लघुकथाएँ, लघुकथाओं का एक अच्छा संकलन है जिसके लिए सुकेश जी को बधाई देनी पड़ेगी। हाँ ‘‘आम आदमी’’ (शंकर पुणातांवेकर) का जिक्र जरूरी लगता है। इसे भी कई लोगों को सुनाता रहता हूँ।
अवरिल मंथन (सं राजेन्द वर्मा) का लघुकथा विशेषांक 2001 में आया था। अच्छा लगा था। न जाने क्यों उस पर अपनी आदत के मुताबिक निशान नहीं लगा पाया था।
हाल ही में किताबघर दिल्ली से सुकेश साहनी द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह बालमनो वैज्ञानिक लघुकथाएँ आई है। पढ़ी है अच्छी लग रही है। अभी थोड़ी सी छोटी पढ़ी है। फेहरिस्त में लेखकों के नाम पते न होना बहुत खलता है। मुझे खुद लिखने पड़े अंतिम लघुकथा नीलम कुलश्रेष्ठ, अनूप श्रीवास्तव। देवांशुपाल की तो और जबरदस्त है। इस बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाओं के चयन के लिए संपादक को बधाई।