–एलिजा, उठो! उधर केबिन में जाओ। शैलमा ने चार नम्बर केबिन की ओर संकेत करते हुए कहा।
चुपचाप बैठी रही एलिजा। शैलमा का कहा कुछ सुना ही ना हो जैसे। शैलमा ने दो एक क्षण उसका चेहरा ध्यान से देखा। फिर अपनी मुट्ठी में भींचे नोटों को एक बारगी फिर से गिनते हुए किंचित मीठे होले स्वर में बोली, चली जा, जा बेटी जा, ग्राहक बैठा है उधर तेरा, उठ जल्दी कर।
कुछ देर उसी तरह सिर झुकाए बैठी रही एलिजा, फिर अपनी पीठ पर शैलमा के हल्के–हल्के स्पर्श को महसूस कर पलकों की कोरों से छलछला आए पानी को पोंछती सी उठी। वाश–बेसिन से अंजुरी भर पानी लेकर मुँह धोया। टॉवेल से पोंछने के साथ ही चेहरे पर पाउडर का हल्का–सा पफ देकर ब्रुश से बालों को संवार लिया। कपड़ों की सिलवटें सोखती वह यन्त्रवत् केबिन में प्रविष्ट हो गई।
शैलमा कुछ देर तक एकाग्र–सी उसे जाते देखती रही, फिर सोफे पर अधलेटी–सी एक दूसरी लड़की की ओर मुखातिब होते हुए बोली, पम्मी! क्या हो गया है आजकल एलिजा को, बहुत जल्दी थक जाती है। अभी तो यह तीसरा.....इधर इसकी डिमाण्ड बढ़ रही है और अभी से यह हाल। शैलमा के माथे की रेखाएँ कुछ गहरी हो गईं।
–बात यह नहीं है मैडम, एलिजा थकी नहीं, टूटती जा रही है। अभी–अभी जो ग्राहक गया था न इससे पहले। जानती हो वह कौन था। इधर–उधर देखते हुए पम्मी ने फुसफुसाकर राज की बात कही, एलिजा का पति। जब यह उकसे साथ थी तब तो इधर–उधर की छोकरियों के चक्कर में इस मारपीट कर घर से निकाल दिया। हर दूसरे–तीसरे दिन यहाँ आ जाता है, कुत्ता।
शैलमा कुछ देर तक अवाक्–सी पम्मी को देखती रही। फिर केबिन के बन्द दरवाजे को, अब उस हरामी को यहाँ पैर भी नहीं रखने देगी, उसने मन–ही–मन तय कर लिया।
जैसा कि हमें ज्ञात है, किसी भी रचना को लघुकथा के रूप में परखने हेतु हमारे पास तीन आधार उपलब्ध है–
1.रचना की कथानक प्रकृति
2. रचना का कथा प्रकटीकरण
3.रचना का समापन बिन्दु या निदान
1.लघुकथा में एक या दो दृश्य वाले कथानक को लिया जाता है। चूँकि लघुकथा में एक या दो पहर की कथा का ताना–बाना बुना जाता है, अत: ऐसी ही कथानक लघुकथा के लिए आदर्श होते हैं।
अब इसी रचना को लें। इसमें एक ही दृश्य के माध्यम से पूरी रचना का ताना–बाना बुना गया है। रचना का कथानक किसी कोठे का है, जहाँ एलिजा अपनी अन्य सहयात्रियों के साथ परिस्थितियोंवश धंधा करने पर मजबूर है। एलिजा का पति, जिसने उसे ठुकरा दिया है, कोठे पर अपनी काम–पिपासा शांत करने आने लगता है, जिस कारण एलिजा टूट–सी जाती है और इसी टूटने के अंदाज को लेखक ने एक ही दृश्य के माध्यम से प्रकट किया है, जब शैलमा और पम्मी एलिजा की हालत पर बात करती हैं।
रचना का कथानक लघुकथा के लिए नितांत आदर्श है और ऐसी मनोवैज्ञानिक रचना का कथानक चुनना लेखक की लघुकथा के प्रति तकनीकी जानकारी को प्रकट करता है।
2.लघुकथा में कथ्य प्रकटीकरण के तीन आधार है,
अ. शब्द–विकल्प या कथोपकथन से पृष्ठभूमि या वातावरण का निर्माण।
ब. भाषा प्रयोग में उदार दृष्टिकोण।
स. दीर्घ वाक्य रचना–विधान।
अ. चूँकि लघुकथा का कलेवर छोटा होता है अत: शब्द विकल्प और कथोपकथन कथ्य का विकास किया जाता है। इस रचना में कहीं भी लेखक ने कोठा या धंधा करने की जगह जैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया है, फिर भी पाठक को पता चल जाता है। यह बात कथोपकथन द्वारा लेखक ने स्पष्ट की है। मसलन इसी कथोपकथन के अंश को ‘...अभी–अभी जो ग्राहक गया था न इससे पहले....’ इस कथोपकथन से कोठे की स्थिति स्पष्ट हो जाती है और कोठा कोई परम्परागत नहीं बल्कि आधुनिक है, जिसमें केबिन बने हैंं इसी प्रकार शैलमा को कहीं भी कोठे की मालकिन नहीं बताया गया है, बल्कि एक मैडम शब्द से ही अंदाजा हो जाता है कि वह इस धंधे की संरक्षक व मुखिया है। मिसाल के तौर पर इस अंश को देखें.....बात यह नहीं है मैडम.....’ लघुकथा में कथोपकथन से मूल बात के अलावा अन्य अर्थों का प्रकटीकरण कोई सक्षम लघुकथाकार ही कर सकता है और मोहन राजेश ने इस रचना में ऐसा कर दिखाया है। अर्थात् कथोपकथन से कथ्य विकास करते हुए एक विश्वसनीय वातावरण का निर्माण किया है। शैलमा का एलिजा की पीठ पर प्यार से हाथ फेरना और बेटी का सम्बोधन, रचना के कथ्य विकास में सहायक हैं।
ब. भाषा के दृष्टिकोण से लघुकथा में अधिक प्रयोग करने की गुंजाइश नहीं है। कारण, लघुकथा में हम वैसी भाषा प्रयोग नहीं कर सकते जिससे पाठक को उलझन का सामना करना पड़े। मसलन न तो संस्कृतनिष्ठ और न ही क्षेत्रीय बोली के शब्दों की बहुलता ही लघुकथा के कथ्य के विकास में सहायक बन सकते हैं। कथानक के अनुरूप भाषा प्रयोग लघुकथा के स्वाभाविक विकास में सहायक बनता है।
प्रस्तुत रचना में लखक ने एक ऐसे चकलाघरके कथानक को उठाया है, जहाँ धंधा करने वाली जाहिल–गंवार नहीं है और बाकायदा उनके केबिन हैं। यानि रचना के पात्र एक प्रकार के स्तरीय माहौल में रह रहे हैं, बेशक वहाँ धंधा होता हो और पात्र उसी के अनुसार बातचीत करते प्रतीत होते हैं मसलन–‘एलिजा उठो! उधर केबिन में जाओ....’
इस प्रकार इस रचना में कथानक के अनुरूप भाषा प्रयोग किया गया है, जिससे कथ्य विकास को स्वाभाविक गति मिलती है।
स. लघुकथा में लम्बे वाक्यों से हम एक पैरा जितनी लंबाई ले सकते हैं। इससे रचना के कलेवर को अनावश्यक विस्तार से बचने में मदद मिलती है और रचना की कसावट भी बरकरार रहती है। इस रचना में इसी वाक्य को देखिए, शैलमा कुछ देर तक एकाग्र–सी उसे जाते देखती रही फिर सोफे पर अधलेटी–सी एक दूसरी लड़की की ओर मुखातिब होते हुए बोली, ‘पम्मी! क्या हो गया है आजकल एलिजा को, बहुत जल्दी थक जाती है।’
इस एक लम्बे वाक्य से लेखक ने पाठक में एक जिज्ञासा उत्पन्न कर दी है और कथ्य विकास को कुतूहल की तरफ दिशा दी कि एलिजा को क्या हो गया है। इस लम्बे वाक्य से रचना में पूरे पैरा कीबात कहा जाना सिद्ध हो रहा है। अत: कथ्य के विकास में लेखक पूरी तरह इन बिन्दुओं पर सफल रहा है।
3.लघुकथा में केवल डाइग्नोज ही किया जाता है और ट्रीमेंट पाठकों पर छोड़ दिया जाता है। इस रचना में लेखक ने समाज की उन औरतों की हालत का डाइग्नोज (निदान) किया है, जो एक आदर्श पत्नी तो नहीं बन सकी परन्तुवैश्या के रूप में दूसरों की हवस मिटाने की जिंस बन जाती हैं। तिस पर उस औरत केदिल से पूछो, जिसका पति एलिजा को ठुकरा चुका है और देहाग्नि को शांत करने एलिजा के पास आता है। क्या वह उसे पत्नी बनाकर नहीं रख सकता था। इस पुरुष प्रधान समाज में आज भी नारी की स्थिति लौट फिर कर प्रताडि़त व अबला के रूप में सामने आती है और
4.लेखक इस रचना के माध्यम से तमाम नारी मुक्ति आन्दोलनों पर थूक–सा देता है।
कोई रचना पूर्ण लघुकथा तभी बन पाती है, जब उसमें समापन बिन्दु का निर्बाह संतुलित रूप से किया गया हो। मसलन इस रचना का अंत लेखक ने शैलमा के निश्चय से कराया है कि वह अब एलिजा के पति को चकले/ कोठे पर नहीं आने देगी। अन्तिम पैरा से यह रचना पूर्ण बन गई है और यही पैरा इस रचना को पाठकीय आस्वाद प्रदान करने में सक्ष्म है। अगर यह पैरा नहीं होता तो लघुकथा का अंत स्वाभाविक नहीं माना जाता। इससे पता चलता है कि लेखक में रचना को पूर्णता प्रदान करने की क्षमता व योग्यता है। रचना को कहीं भी झटके वाले अंत से खत्म नहीं किया गया है। अंतिम पैरा से रचना बहुत ही प्रभावकारी बन जाती है। इस प्रक्रिया से लघुकथा का अंत करना, लघुकथा का समापन बिन्दु कहलाता है।
उक्त तीनों आधारों पर यह रचना (लघुकथा) पठनीय बन पड़ी है।
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